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अर्थ- शुद्धोपयोग से निष्पन्न अरहंत सिद्ध भगवान को अतिशय रूप - सबसे अधिक, आत्मा से उत्पन्न, विषयातीत, अनुपम, अनन्त और अनन्तरित सुख प्राप्त होता है।
(प्र. सा. 1- 13) 22. * असुहोवओगरहियो सुहोवजुत्तोण अण्णदवियम्हि।
होज्जं मज्झत्थोहं णाणप्पगमप्पगं झाए। अर्थ- जो अशुभोपयोग से रहित है और शुभोपयोग में भी जो उद्यत नहीं हो रहा है ऐसा मैं आत्मातिरिक्त अन्य द्रव्यों में मध्यस्थ होता हूँ और ज्ञानस्वरूप आत्मा का ही ध्यान करता हूँ।
(प्र. सा. 2-67)
23. * धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जइ सुद्धसंपओगजुदो।
पावइ णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो य सग्गसुहं ।। अर्थ- धर्म से परिणत स्वरूप वाला आत्मा यदि शुद्ध उपयोग सहित हो जाता है तो वह मोक्ष सुख को पाता है और यदि वह शुभ उपयोग वाला होता है तो स्वर्ग के सुख को प्राप्त करता है ।
(प्र. सा. 1 - 11) 24. * मिच्छतिये उवरुवरिं मंदत्तेणासुहोवओगो दु।
अवदतिये सुद्धवओगसादगुवरुवरि तारतम्मेण ॥ 25. * सुहउवओगो होदि हु तत्तो अपमत्तपहुदि खीणते।
सुद्धवओगजहण्णो मज्झुक्कस्सो य होदि ति॥ अर्थ- मिथ्यादृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में ऊपर-ऊपर मन्दता से अशुभ-उपयोग रहता है । उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि, श्रावक और प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों में परम्परा से शुद्ध उपयोग का साधक ऊपर-ऊपर तारतम्य से शुभ उपयोग रहता है। तदनन्तर अप्रमत्त आदि गुणस्थान से क्षीणकषाय पर्यंत इन छह गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से शुद्ध उपयोग वर्तता है।
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