Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 70
________________ संसारजलहितारणकारणमब्भुदयमोक्खपरमसुहं । दादुं च णिमित्तं खलु णंदउ जिणसासणं सुइरं ।।195।। अन्वय - खलु संसारजलहितारणकारणमब्भुदयमोक्खपरमसुहं दादुं च णिमित्तं सुइरं जिणसासणं णंदउ । अर्थ - संसार रूपी समुद्र से तारने में समर्थ, अभ्युद्य स्वरूप मोक्ष रूप परम सुख को देने में निमित्त ऐसा जैन शासन चिरकाल तक आनन्दित अर्थात् जयवंत रहें। अरहंतसिद्धसाहू केवलिपण्णत्तधम्म इदि एदे । चत्तारो भवियाणं लोगुत्तमसरणमंगला होंति |196|| अन्वय - अरहंतसिद्धसाहू केवलिपण्णत्तधम्म इदि एदे चत्तारो भवियाणं लोगुत्तमसरणमंगला होति । अर्थ- अरहंत, सिद्ध, साधु और केवली प्रणीत धर्म ये चार भव्य जीवों को लोक में उत्तम, शरण और मंगल रूप हैं । जो परमागमसारं परिभावइ चत्तरागदोसो हु। सो विरहिय परभावो णिव्वाणमणुत्तरं लहइ ||197।। अन्वय - हुजो चत्त रागदोसो परमागसमारं परिभावइ सो परभावो विरहिय णिव्वाणमणुत्तरं लहइ। अर्थ- जो राग, दोष को छोड़कर परमागमसार ग्रन्थ का मनन चिंतन करता है वह परभावों को छोड़कर सर्वश्रेष्ठ निर्वाण को प्राप्त करता है । इदि परमागमसारं सुयमुणिणा कहियमप्पबोहेण । सुदणिउणा मुणिवसहा दोसचुदा सोहयंतुफुढं ।।19811 अन्वय - इदि परमागमसारं अप्पबोहेण सुयमुणिणा कहियं सुदणिउणा मुणिवसहा दोसचुदा सोहयंतु फुढं । अर्थ - इस प्रकार परमागमसार अल्प ज्ञानी श्रुत मुनि के द्वारा कहा गया है (यदि कुछ त्रुटि हो तो) शास्त्र ज्ञान में निपुण, दोष रहित श्रेष्ठ मुनि शुद्ध करें । ( 59 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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