Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 68
________________ जीवो सकसायत्तादो कम्माणं हि पुग्गले जोग्गे । आदत्ते सोबंधो भणियो जिणमग्गकुसलेहिं ।।188|| अन्वय - जीवो सकसायत्तादो कम्माणं जोग्गे पुग्गले आदत्ते सो बंधो हि जिणमग्गकुसलेहिं भणियो। अर्थ - जीव,जो कषाय से कर्मों के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है, वह बंध है। ऐसा जिन मार्ग में कुशल अर्थात् गणधर देव ने कहा हैं। इति बन्धस्वरूपनिरूपणम् । मिच्छत्ताविरदीओ पमादजोगा तहा कसाया य । एदे चउ बंधस्स य हेदु इदि जाण णियमेण ||189।। अन्वय - मिच्छत्ताविरदीओ पमादजोगा तहा कसाया य इदि णियमेण एदे चउ बंधस्य य हेदु जाण । अर्थ – मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, योग और कषाय ये नियम से चार प्रकार के बंध के कारण जानों । इति बन्धकारणस्वरूपनिरूपणम् । बंधाणंहेदूणमभावादो भावदो णिज्जरादो सव्वेसिं । कम्माणविप्पमोक्खो मोक्खो सोजोगिचरियम्हि।।19011 अन्वय - बंधाणंहेदूणम भावादो भावदो णिज्जरादो सव्वेसिं कम्माणविप्पमोक्खो मोक्खो सो जोगि चरियम्हि । अर्थ - बंध के कारणों का अभाव होने से तथा सब कर्मों की निर्जरा होने से, कर्मों का अभाव हो जाना मोक्ष है, वह मोक्ष अयोगकेवली के चरम समय में होता है । इति मोक्षस्वरूपनिरूपणम् । सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं च जाण वीमन्तु । मोक्खस्स कारणं तदुविहं ववहारणिच्चयदो। 19111 अन्वय - वीमन्तु सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्रं च मोक्खस्य कारणं जाण ववहारणिच्चयदो । ( 57 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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