Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 47
________________ अन्वय - तेयपरं परसुहुमा तेजदुगा होति अप्पडीघादा सव्वेसिं जीवाणं अणाइ संबंधगा चेव । ___ अर्थ - तैजस शरीर से आगे का शरीर अर्थात् कार्मण शरीर अत्यन्त सूक्ष्म है। तैजस और कार्मण ये दोनों शरीर अप्रतिघाती होते है। इन दोनों शरीरों का सभी जीवों के साथ अनादि सम्बन्ध है । गब्भज संमुच्छणजं ओरालं होदि खलुववादभवं । वेगुव्वं छट्टगुणे अव्वाघादि हु सुहविसुद्ध आहारो।।126|| अन्वय - खलु गब्भज संमुच्छणजे ओरालं होदि उववादभवं वेगुव्वं छट्ठगुणे सुहविसुद्ध अव्वाघादि आहारो। अर्थ – निश्चय से गर्भ और सर्मूच्छन जन्म से उत्पन्न हुआ शरीर औदारिक शरीर कहलाता है उपपाद जन्म से होने वाला देव और नारकियों का शरीर वैक्रियिक होता है। प्रमत्त संयत छठवें गुण स्थानवर्ती मुनिराज के जो शुभ, विशुद्ध और अव्याघात (बाधारहित) शरीर होता है वह आहारक शरीर कहलाता है । पल्लतितेत्तीसुवहि भिण्णमुहुत्तं तु उवहि छासट्ठी। सत्तरिकोडीकोडि उवहीयो वरठिदी ताणं ॥127|| अन्वय - वरठिदी ताणं पल्लतितेत्तीसुवहि तु भिण्णमुहुत्तं उवहि छासट्ठी सत्तरिकोडीकोडि उवहीयो । अर्थ - उन शरीरों की उत्कृष्ट स्थिति अर्थात् औदारिक शरीर की तीन पल्य , वैक्रियिक शरीर की तेतीस सागर और आहारक शरीर की भिन्नर्मुहूर्त , तैजस शरीर की छियासठ सागर तथा कार्मण शरीर की सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । जं देहीपरिवरणं जालमिव हि मंससोणिदं विउदं। तं चेव जरायु हवे जरायुजातम्हि जादो हु।।12811 अन्वय - जं मंससोणिदं विउदं हि जालमिव देहीपरिवरणं तं चेव जरायु हवे जरायुजातम्हि जादो हु । ( 36 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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