Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

View full book text
Previous | Next

Page 58
________________ उवरि उत्तासुहजोगं सव्वं चइऊण सुहमणो होइ। रयणत्तयजिणपूजा दाणाणुप्पेहणादिभावो हु ।।164|| अन्वय - हु उवरि उत्ता सव्वं असुहजोगं चइऊण सुहमणो रयणत्तयजिणपूजा दाणाणुप्पेहणादि भावो सुहमणो होइ । अर्थ - ऊपर वर्णित किये सभी प्रकार के अशुभ योग का त्याग कर, रत्नत्रय, जिन पूजा, दान, 12 अनुप्रेक्षाओं आदि भावरूप होना चाहिये। सपरहिदं जम्मिच्छदि हेतुं वयणं च जाण सुहवयणं । जिनपूजादिसु कुसलव्वावारो होइ सुहकायो ||165।। अन्वय - सपरहिदं जम्मिच्छदि हेतुं वयणं सुहवयणं जाण जिनपूजादिसु कुसलवावारो च सुहकायो होइ । अर्थ - जो स्व पर का हित चाहने में कारण रूप वचन हैं उन्हें शुभ वचन जानो तथा जिनेन्द्र देव की पूजा आदि में कुशलता पूर्वक व्यापार करना शुभ काय है। सुहजोगादो जीवा देविंदणरिंदपदविसंजणिदं । भोत्तूणकरणसोक्खं पच्छा भुंजंति णियसोक्खं ||16611 अन्वय - सुहजोगादो जीवा देविंदणरिंदपदविसंजणिदं भोत्तूणकरणसोक्खं पच्छा णियसोक्खं भुंजंति । ___ अर्थ -शुभोपयोग से जीव देवेन्द्र, चक्रवर्ती आदि पदों से युक्त होकर इन्द्रिय सुखों को भोग कर, पश्चात् आत्म सुख को भोगते हैं। भावासवं णिमित्तं कादूणं कम्मपुग्गलासवणं । दव्वासवोहु सो वि य बहुधामूलुत्तरुत्तरुत्तरपयडी।।167।। अन्वय - भावासवं णिमित्तं कादूणं कम्मपुग्गलासवाणं दव्वासवो हु सो वि बहुधामूलुत्तरुत्तरुत्तरपयडी। ( 47 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74