Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 59
________________ अर्थ -भावास्रव को निमित्त करके कर्म रूप पुद्गल का जो आना है वह द्रव्य आस्रव है , वह मूल, उत्तर और उत्तरोत्तर प्रकृतियों के भेद से अनेक प्रकार का है। अडेव मूलपयडी उत्तरपयडी य अट्टचालसया। उत्तुत्तरपयडीयो असंखमेत्ता हु लोगाणं ||16811 अन्वय - हु अट्ठेव मूलपयडी उत्तरपयडी अट्टचालसया उत्तुत्तरपयडीओ य असंखमेत्ता लोगाणं। अर्थ- कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं, उत्तर प्रकृतियाँ एक सौ अड़तालीस तथा उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ असंख्यात लोक प्रमाण हैं। इति आम्रवतत्त्वम् । जीवादिगेण जेण दु चेदणभावेण बंधदे कम्म। जीवो हु भावबंधो सो भणियो जिणवरिंदेहिं ॥169।। अन्वय - जीवादिगेण जेण दु चेदणभावेण जीवो कम्मं बंधदे सो भावबंधो जिणवरिंदेहिं भणियो। अर्थ - जीवादिक विषय में होने वाले, जिस चेतन भाव से जीव कर्म को बांधता है वह भाव बंध है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा गया है। कम्मदव्वप्पदेसा परोप्परं (सव्वहा) पविस्संति। सो चेव दव्वबंधो णायव्वो तच्चकुसलेहिं ।। 17011 अन्वय - कम्मदव्वप्पदेसा परोप्परं (सव्वहा) पविस्संति तच्चकुसलेहिं सो चेव दव्वबंधो णायव्वो । अर्थ - कर्म रूप द्रव्य के प्रदेश (जीव प्रदेशों में) जो परस्पर में एकमेक होकर प्रवेश करते हैं , तत्त्व में कुशल मनुष्यों के द्वारा उसे द्रव्य बंध जानना चाहिये। ( 48 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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