Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 61
________________ हवे सो खलु दञ्च संवरो णायव्यो । अर्थ - जिनेन्द्र भगवान के उपदेश से, नियम से समस्त द्रव्य कर्मो का निरोध होना वह द्रव्य संवर जानना चाहिए । इति संवरतत्त्वम् सुद्धण जेण चेदणभावेण हु कम्म पुग्गलं गलइ । सो भावणिज्जरा पयडिणिज्जरा दव्वणिज्जरा होइ।। 175|| अन्वय - जेण सुद्धेण चेदणभावेण कम्म पुग्गलं गलइ सो भावणिज्जरा पयडिणिज्जरा दव्वणिज्जरा होई । अर्थ-जिस शुद्ध चेतन भाव से कर्म परमाणु नष्ट होते हैं वह भाव निर्जरा है तथा कर्म प्रकृतियों की निर्जरा द्रव्य निर्जरा है । सविपाका अविपाका सा दुविहा तत्थ होइ सविपाका । चादुग्गदिगाणं पि हु महव्वईणं हवे इयरा ||176|| अन्वय - सा सविपाका अविपाका दुविहा होइ तत्थ सविपाका चादुग्गदिगाणं पि हु इयरा महव्वईणं हवे । अर्थ - वह निर्जरा सविपाक और अविपाक के भेद से दो प्रकार की है । सविपाक निर्जरा चारों गतियों में होती है। किन्तु दूसरी अर्थात् अविपाक निर्जरा महाव्रतियों के होती है। सम्मत्तगहणकाले थूलवदे तह महव्वदग्गहणे । पढमकसायविसंजोजणे य मिच्छत्तियक्खवणे ||177।। इगिवीसकसायुवसमकाले उवसंतगे गुणट्ठाणे । खवगे य खीणमोहे जिणेसु दव्वा असंखगुणिदकमा ।।17811 इदि एगादसणिज्जरठाणे खविदूण सव्व कम्माणी । लोयग्गे चिढेदि हु अणंतणाणाइगुणजुदो जीवो ||179|| अन्वय- सम्मत्तगहणकाले थूलवदे तह महव्वदग्गहणे पढमकसाय विसंजोजणे मिच्छत्तियक्खवणे इगिवीसकसायुवसमकाले च उवसंतगे ( 50 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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