Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 46
________________ पज्जत्तगणामुदये संपुण्णा होति जस्स' स पज्जत्ती। जाव दुतणूण पुण्णो णिव्वत्ति अपुण्णगो ताव।।122|| अन्वय - जस्स पज्जत्तगणामुदये संपुण्णा होंति स पज्जत्ती जाव दु तणू ण पुण्णो णिवत्ति अपुण्णगो ताव । अर्थ - जिसके पर्याप्ति नामकर्म के उदय से पर्याप्ति की पूर्णता होती है वह पर्याप्तक जीव कहलाता है । जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है, तब तक वह जीव निर्वृत्यपर्याप्तक है। जस्स अपज्जत्तुदये णियणियपज्जत्ति पुण्णदा ण हवे। सो लद्धि अपज्जत्तो मरदि हु अन्तोमुहुत्तम्हि ।।123|| ___ अन्वय - जस्स अपज्जत्तुदये णियणियपज्जत्ति पुण्णदा ण हवे सो लद्धि अपज्जत्तो हु अन्तोमुहुत्तम्हि मरदि । अर्थ - जिस जीव के अपर्याप्तक नामकर्म के उदय से अपनी - अपनी पर्याप्ति की पूर्णता अर्थात् किसी भी पर्याप्ति की पूर्णता नहीं होती है । वह लब्ध्यपर्याप्तक जीव कहलाता है । वह जीव नियम से अन्तर्मुहूर्त में मरण को प्राप्त करता है । ओरालिय-वेगुव्विय-आहारय-तेज-कम्मणा देहा । पढम तिया संखगुणा पदेसदो तेजकम्मणाणंतगुणा ।।124|| अन्वय - ओरालिय-वेगुब्बिय-आहारय-तेज-कम्मणा देहा पदेसदो पढम तिया संखगुणा तेजकम्मणाणंतगुणा। ___ अर्थ - औदारिक, वैक्रियिक , आहारक, तैजस और कार्मण ये पाँच प्रकार के शरीर होते हैं । प्रदेश की अपेक्षा प्रथम तीन शरीर असंख्यात गुणित रूप होते हैं , तैजस और कार्मण शरीर अनंत गुणे होते हैं । तेयपरं परसुहमा तेजदुगा होति अप्पडीघादा। सव्वेसिं जीवाणं अणाइ संबंधगा चेव ।।125|| 122. - (1) स ( 35 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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