Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 44
________________ भूमिज मनुष्य (उत्तम, मध्यम, जघन्य) कुभोग भूमिज मनुष्य, म्लेच्छखंड मनुष्य इस प्रकार छह प्रकार के गर्भज मनुष्यों के पर्याप्त व निर्वृत्त्यपर्याप्त दो भेद होने से 12=(6 x 2 ) भेद हैं । दस प्रकार के भवनवासी देव, आठ प्रकार के व्यन्तर देव, पाँच प्रकार के ज्योतिषी देव , 63 पटलों में उत्पन्न होने वाले वैमानिक देव , 49 पटलों में उत्पन्न होने वाले नारकी। इस प्रकार सबको मिलाने पर (10 + 8 + 5 + 63 + 49) = 135 भेद हैं। ये सभी पर्याप्त और निर्वृत्त्यपर्याप्त इन दो भेदों की अपेक्षा (135 x 2=270) भेद रूप हैं। इस प्रकार जीव समास के एकेन्द्रिय-विकलेन्द्रिय के 81, पंचेन्द्रिय तिर्यंच के 42, सम्मूर्च्छन मनुष्य का एक, गर्भज मनुष्य के 12, देव व नारकी के 270, ये सब मिलाकर (81 + 42 + 1 + 12 + 270)=406 भेद कहे गये हैं। रिजु-पाणिमुत्त-लांगल-गोमुत्तगदि त्ति गदि चदुधा। रिजुगदिये आहारी इयरतिये चेवणाहारी ।।116।। __ अन्वय - रिजु-पाणिमुत्त-लांगल-गोमुत्तगदि त्ति गदि चदुधा रिजुगदिये आहारी इयरतिये चेवणाहारी। अर्थ - ऋजु, पाणिमुक्ता, लांगलिका , गोमूत्रिका इसप्रकार विग्रह गति चार प्रकार की होती है । ऋजु गति में जीव आहारक होता है और अन्य तीन गतियों अर्थात् पाणिमुक्ता, लाङ्गलिका, गोमूत्रिका इन में अनाहारक ही है । तिण्हं ओरालादितणूणं चउ पणग छक्क पज्जत्तीणं। जोग्गं पोग्गलपिण्डग्गहणं आहारयं णाम ॥117।। अन्वय - तिण्हं ओरालादि तणूणं चउ पणग छक्क पज्जत्तीणं जोग्गं पोग्गलपिण्डग्गहणं आहारयं णाम । अर्थ - तीनों औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरों तथा चार, पाँच और छह पर्याप्तिओं के योग्य पुद्गल पिण्ड का ग्रहण करना आहारक कहलाता है । ( 33 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -

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