Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 55
________________ हस्सो हसणं कुव्वदि रदिपीदिंतह य अरदि अप्पीदि । सोगं भयं च रोदणभीदिंतुदुगुच्छा' दुगच्छं खु।।153| अन्वय - खु हस्सो हसणं रदि पीदिं तह य अरदि अप्पीदिं सोगं भयं रोदणभीदिं तु च दुगुच्छा दुगच्छं। अर्थ -हास्य कषाय हास्य को, रति कषाय प्रीति को, अरति कषाय अप्रीति को, शोक-रुदन को , भय - भय को और जुगुप्सा ग्लानि को पैदा करती है। थीपुंवेदणउंसयवेदा पुरिसित्थिउहय अहिलासं । कुव्वंति कमेणेदे हवंति खलु णोकसायक्खा 1154|| अन्वय - थीपुंवेदणउंसयवेदा कमेण पुरिसित्थिउहय अहिलासं कुव्वंति एदे खलु णोकसायक्खा हवंति। अर्थ - स्त्रीवेद, पुरुषवेद व नपुंसक वेद क्रमशः पुरुष, स्त्री और स्त्री-पुरुष दोनों में अभिलाषा उत्पन्न करते हैं। ये नो कषाय हैं। सच्चासच्चुभयमणं अणुभयमणमिदि वियाण मणचारी । वयणं च तहाणेयं इदि मणवयणाणि अट्टविहं ।।155।। अन्वय - सच्चासच्चुभयमणं अणुभयमणमिदि मणचारी वियाण वयणं च तहा णेयं इदि मणवयणाणि अट्ठविहं । अर्थ - सत्य , असत्य उभय और अनुभय ये चार प्रकार की मन की प्रवृत्ति जानों , इसी प्रकार चार प्रकार की वचन की प्रवृत्ति जानना चाहिए । इस प्रकार मनोयोग और वचनयोग दोनों के आठ प्रकार हैं। ओरालुरालमिस्सं वेयुव्वं पुण वियुव्वणा मिस्सं। आहाराहारयमिस्सं कम्मणकायमिदिसगं काया ||156|| अन्वय- ओरालुरालमिस्सं वेयुव्वं वियुवणा मिस्सं आहाराहारयमिस्सं पुण कम्मणकायमिदिसगं काया। 153. (1) जुगुप्सा ( 44 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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