Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 54
________________ अन्वय - सिलभेदथं भवेणुवमूलक्किमिरायकंवलसमाणाचउरो अणकोहादी सव्वेदे णिरयगदिहेदु । अर्थ - शिलाभेद, शैलभेद, बाँस की जड़, कृमिराग कम्बल के समान क्रमशः चारों अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ ये सभी कषाय नरकगति की कारण हैं । भूभेदट्टि उरभ्भयसिंगे चक्कमलसरिसगा होंति । चउरप्पच्चक्खाणा सव्वेदे तिरयगदिहेदु ||150l अन्वय - भूभेदट्ठि उरम्भयसिंगे चक्कमलसरिसगा चउरप्पच्चक्खाणा सव्वेदे तिरयगदिहेदु होंति । अर्थ - पृथ्वी भेद, अस्थि, मेढ़े के सींग, चक्रमल के समान क्रमशः चारों प्रकार की अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय, तर्यंचगति की कारण होती हैं । धूलीरेहा वंसे गोमुत्ते तणुमले हु सारिच्छा । पच्चक्खाणगचउरो सव्वेदे मणुयगदिहेदु ||151|| अन्वय- धूलीरेहा वंसे गोमुत्ते तणुमले हु सारिच्छा पच्चक्खाणगचउरो सव्वेदे मणुयगदिहेदु अर्थ - धूलिरेखा, काष्ठ, गो मूत्र और शरीरमल के सदृश क्रमशः चारों प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय ये सभी मनुष्यगति की कारण हैं । जलरेहावेत्तेण य खुरुप्पहरिद्दरायसरिसा हु । संजलणं कोहादी चउरेदे देवगदिहेदु ||1521 अन्वय - जलरेहावेत्तेण य खुरुप्पहरिद्दरायसरिसा हु चउरेदे संजलणं कोहादी देवगदिहेदु । अर्थ - जल रेखा, बेंत, खुरपा, हल्दी के रंग के समान क्रमशः चारों संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ, ये सभी कषाय देवगति की कारणभूत हैं। Jain Education International ( 43 ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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