Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 42
________________ एइंदियादि पंचक्खंताणं फुसणरसणघाणाणि । णयणसोदाणि कमसो वड्ढेओ हवंति जीवाणं ।।107|| . अन्वय - जीवाणं एइंदियादि पंचक्खंताणं फुसणरसणधाणाणि णयणसोदाणि कमसो वड्ढेओ हवंति। ___ अर्थ- जीवों में एकेन्द्रिय को आदि लेकर पंचेन्द्रिय पर्यंत क्रमशः स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन इन्द्रियों की वृद्धि होती है । अठ फासा पंच रसा दो गंधा पंच वण्ण सत्त सरा । एदेमणेण सहिया इंदियविसया हुअठवीसा।108|| अन्वय - अठ फासा पंच रसा दो गंधा पंच वण्ण सत्त सरा एदे मणेण सहिया इंदियविसया हु अठवीसा । - अर्थ - आठ स्पर्श, पांच रस, दो गंध, पांच वर्ण, सात शब्द और मन ये अट्ठाईस इन्द्रियों के विषय हैं। सुद्धखरभूजलग्गिवायु णिगोददुग थूलसुहमा य । पत्तेयपडिट्टिदरा तणवल्लिगुम्मरुक्खमूला य ।। 109|| - . विगतिगचदुविगलिंदियजीवा पुण्णा अपुण्णदुगभेदा । - सण्णि असण्णी जलथलखगाण गब्भे य संमुच्छे ।।1101. पज्जत्ता णिव्वत्ति अपज्जत्ता चेदि गब्भजा दुविहा । पुण्णा य अपुण्णदुगाइदितिय भेदा हवंति संमुच्छाइं॥111|| वरमज्झजहण्णाणं भोगजतिरियाणं थल-खगाणं च। गब्भभवे पज्जत्ता णिव्वत्ति अपुण्णगा दुविहा ।।11211 अज्जसमुच्छिममणुवे लद्धी अपुण्णो हु गब्भजे मणुवे। भोगतियकुणरमणुवे मिलेच्छमणुवेयपुण्णदुगं ।।113|| भावण-वाण-ज्जोइसदस-अठ-पणभेयसंजुदा देवा । कप्पजतिसट्ठिपडलुभावा य उणपण्णपडलजा णिरया।।114|| पज्जत्ता णिव्वत्ति अपज्जत्ता चेदि दुविह भेदे दे । जीवसमासवियप्पा छाहियचारिसयमिदि भणिदं ।।115।। ( 31 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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