Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 41
________________ अवधिदर्शन , तीन अज्ञान अर्थात् कुमति, कुश्रुत और कुवधिज्ञान, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, देश संयम, सराग चारित्र, पाँच लब्धियाँ-दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य इस प्रकार ये समस्त क्षापोपशमिक भाव के भेद होते हैं। औदयिक भाव के गति, लिंग, कषाय, लेश्या, मिथ्यात्व, अज्ञान, असिद्धत्व और असंयम ये भेद होते हैं। पारिणामिक भाव के जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन भेद जानना चाहिये । उवओगो लक्खणमिह सो दुविहोणाणदंसणं चेइ। णाणं अट्टवियप्पो चदुव्विहो दंसणुवजोगो ।।104|| अन्वय - उवओगो लक्खणमिह सो दुविहो णाणदंसणं चेइ णाणं अट्ठ वियप्पो चदुब्बिहो दंसणुवजोगो।। अर्थ - उपयोग जीव का लक्षण है , वह दो प्रकार है ज्ञान और दर्शन रूप अर्थात् ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग रूप । ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है और दर्शनोपयोग चार प्रकार का है। संसारी मुत्ता इदि ते दुवियप्पा हवंति खलु जीवा । संसारी हु समुत्ता मुत्तिविरहिदा हु ते सिद्धा ।। 105।। अन्वय - ते जीवा खलु दवियप्पा संसारी मुत्ता हवंति संसारी हु समुत्ता मुत्तिविरहिदा हु ते सिद्धा।। अर्थ - वे जीव निश्चय से दो प्रकार के है संसारी और मुक्त संसारी जीव निश्चय से मूर्तिक तथा जो अमूर्तिक हैं वे सिद्ध जीव हैं । संसारी तसथावरभेदा दुविधा हवंति तेसु तसा । बि तिचदुरिंदिय वियला सण्णि असण्णी दुपंचक्खा ।। 106|| अन्वय - संसारी तसथावरभेदा दुविधा हवंति तेसु तसा बि ति चदुरिंदिय वियला सण्णि असण्णी दु पंचक्खा । अर्थ - संसारी जीव त्रस स्थावर के भेद से दो प्रकार के होते हैं । उनमें द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय-विकलेन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय और संज्ञीपंचेन्द्रिय ये सभी त्रस जीव हैं । ( 30 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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