Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 14
________________ साधुगणो साधयदि में तदुवाचं णिच्चं देउ । अर्थ – सम्पूर्ण गुण और शील से सहित, सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से युक्त मोक्षमार्ग का साधु समूह साधन करते हैं। ऐसे वे साधु गण मुझे मोक्षमार्ग के उपाय को नित्य देवें । एवं पंचगुरूणं वंदित्ता भवियणिबहबोहत्थं । परमागमस्स सारं वोच्छे हं तच्चसिद्धियरं ।।8।। अन्वय - एवं पंचगुरुणं वंदित्ता भवियणिबहबोहत्थं तच्चसिद्धियरं परमागमस्स सारं हं वोच्छे । ___ अर्थ - इस प्रकार पंच गुरुओं को नमस्कार करके भव्य जीवों के समूह को बोध कराने के लिए तत्त्व की सिद्धी को करने वाला परमागम का सार मैं कहूँगा। पंचत्थिकाय दव्वं छक्कं तच्चाणि सत्त य पदत्था। णव बंधो तक्कारण मोक्खो तक्कारणं चेदि ||७|| अहियारो अट्टविहो जिणवयणणिरूविदो सवित्थरदो। वोच्छामि समासेण य सुणुयजणा दत्त चित्ता हु॥10॥ अन्वय – पंचत्थिकाय छक्कं दव्वं सत्त तच्चाणि य णव पदत्था बंधो तक्कारण मोक्खो तक्कारणं इदि अट्ठविहो अहियारा जिणवयण सवित्थरदो णिरूविदो समासेण वोच्छामि जणा दत्तं चित्ता हु सुणुय। अर्थ - पंचास्तिकाय , छह द्रव्य, सात तत्त्व और नव पदार्थ, बंध स्वरूप, बंध के कारणभूत प्रत्यय, मोक्ष स्वरूप और मोक्ष के कारणभूत उपायों को इस प्रकार इन आठ प्रकार के अधिकारों को जिनेन्द्र के वचन अर्थात् जिनवाणी विस्तार से निरूपण करती है। उसे मैं संक्षेप से कहूँगा भव्यजीवों ! सावधान होकर सुनो। जीवा हु पुग्गला विय घम्माधम्मा तहेव आयासं। संति जदो तेणेदे अत्थि त्ति वदंति तच्चण्हू ||11|| ( 3 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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