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देसपरमोहिविसयं तं सुहुमं पोग्गलं भणंति जिणा । जं सव्वोहिविसयंतंरूवि सुहमसुहममिदिजाणे।।29।।
अन्वय - जिणा देसपरमोहिविसयं तं सुहुमं पोग्गलं भणंति जं सव्वोहिविसयं तं रूवि सुहुमसुहुममिदि जाणे।
अर्थ - जिनेन्द्र देव, जिन पुद्गल स्कन्धों को देशावधि और परमावधि ज्ञान वाले विषय करते हैं , उनको सूक्ष्म पुद्गल कहते हैं , और जो सर्वावधि ज्ञान का विषय है उसे सूक्ष्म-सूक्ष्म पुद्गल जानना चाहिये।
जीवा वटुंति सया अण्णोण्णुवयारदो दु जीवाणं। पुग्गलदव्वं देहाणपाणमणवयणरूवेण ||30II सुहदुक्खसरूवेण य जीवियमरणोवयारयं कुणइ । गदि ठाणोग्गहवत्तणकिरियुवयारोदुधम्म चऊ।।31||
अन्वय - जीवा सया अण्णोण्णुवयारदो दु वटुंति पुग्गलदव्वं देहाणपाणमणवयणरूवेण जीवियमरणोवयारयं जीवाणं उवयारयं धम्म चऊ गदि ठाणोग्गहवत्तणकिरियुवयारो हु कुणइ ।
अर्थ - जीव सदाकाल एक दूसरे जीवों के उपकार में वर्तन करते हैं। पुद्गल द्रव्य देह, श्वासोच्छ्वास, मन , वचन रूप से , सुख-दुःख रूप से और जीवन-मरण आदि से जीवों का उपकार तथा धर्मादिक चार अर्थात् धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य क्रमशः गति, स्थिति, अवकाश और वर्तना क्रिया के द्वारा उपकार करते हैं।
लोकिज्जंतेजीवादय अत्था जम्हि सोहुलोगो त्ति। उच्चदितत्तोबाहिमलोगागासंतेण हु'अण्णे।।32||
अन्वय - जम्हि जीवादय अत्था लोकिज्जंते हु सो लोगो त्ति तत्तो बहिमलोगागासं उच्चदि ते ण हु अण्णे।
अर्थ- जिसमें जीवादि द्रव्य देखे जाते हैं, निश्चय से वह लोक है। उससे बाहर अलोकाकाश कहलाता है । उस अलोकाकाश में अन्य जीवादि द्रव्य नहीं पाये जाते हैं। 32. (1) तणहु
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