Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 29
________________ अन्वय - वीदावरणवियारवियप्पो णियपरमपारिणामियभावे जो वट्ट दि सो परमसुही सहावजीवो चेव दु । अर्थ - जिसके समस्त आवरण विचार और विकल्प समाप्त हो गये हैं। निज परम पारिणामिक भाव में जो वर्तन करता है। वह परमसुखी और स्वभाव में स्थित जीव है। लध्दूणादसुहासुहपरिणामणिमित्तमप्पणो देसे । चउबंदसरूवेण य परिणमदि हु पुग्गलो जो सो||60|| अन्वय - जो लध्दूणादसुहासुहपरिणामणिमित्तमप्पणो देसे य चउबंदसरूवेण परिणमदि सो हु पुग्गलो। अर्थ - जो आत्मा के शुभाशुभ परिणामों के निमित्त से आत्म प्रदेशों में चार प्रकार के बंध स्वरूप से परिणमन करता है ,वह पुद्गल द्रव्य है। होदि विजादि विभावो पुग्गलदव्वं हि पुग्गलं किंचि । वण्णंतर गंधंतर रसंतरं गमिय खण्डरूवेण ||61|| परिणमदि पुग्गलो हुसजादिविहा ण त्ति वण्णिदं समये। जो सुद्धो परमाणू दुति अणु आदि ण गच्छेदि |62|| अन्वय- पुग्गलदव्वं विभावो परिणमदि हि किंचि पुग्गलं वण्णंतर गंधंतर रसंतरं खण्डरूवेण गमिय सजादिविहा परिणमदि हु पुग्गलो विजादि ण होदि त्ति समये वण्णिदं जो सुद्धो परमाणू दुति अणु आदि ण गच्छेदि। अर्थ - पुद्गल द्रव्य विभाव रूप परिणमता है, निश्चय से कुछ पुद्गल वर्ण से वर्णान्तर, गंध से गंधान्तर, रस से रसान्तर क्रम से होकर सजाति रूप परिणमते हैं । पुद्गल विजाति रूप परिणमन नहीं करते ऐसा आगम में कहा है । जो शुद्ध परमाणु है वह दो, तीन अणु आदि को प्राप्त नहीं होता है। 61. (1) दवम्हि ( 18 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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