Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 37
________________ उक्तं च गाथाद्वयं श्लोकद्वयं च - 7. * अट्ठविहकम्मवियला सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा। __ अट्ठगुणा किदकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ।। अर्थ - जो आठ प्रकार के कर्मों से रहित हैं, अत्यन्त शान्तिमय हैं, निरञ्जन हैं, नित्य हैं, आठ गुणों से युक्त हैं, कृतकृत्य हैं और लोक के अग्रभाग में निवास करते हैं, वे सिद्ध भगवान हैं। (गो. जी. 68) 8. * सदसिवसंखो मक्कडि बुद्धो णइयोइयो य वइसेसी। ईसरमंडलिदसण विदूसणटुं कयं एदं ॥ अर्थ- सदाशिव, सांख्य, मस्करी, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, ईश्वर, मंडलि इन दर्शनों अर्थात् मतों को दूषण देने के लिए ये (सिद्धों के) विशेषण कहे गये हैं। (गो. जी. 69) 9. * सदाशिवः सदाकर्मा सांख्यो मुक्तं सुखोऽज्झितम्। मस्करि किल मुक्तानां मन्यते पुनरागतम्॥ 10. * क्षणिकं निर्गुणं चैव बुद्धो यौगश्च मन्यते। कृतकृत्यन्तमीशानो मंडली चोर्द्धवर्तिनम्॥ अर्थ -सदाशिव मतवादी ईश्वर को सदा कर्म से रहित मानता है। सांख्य मुक्त जीव को सुख से रहित मानता है । मस्करी मुक्तों का पुनः संसार में आगमन मानता है। बौद्ध क्षणिक और योग मुक्तात्मा को निर्गुण मानते हैं। ईश्वर वादी ईश्वर को कृतकृत्य नहीं मानते और मण्डली मत आत्मा को सदा ऊर्ध्वगामी मानता है। इति द्रव्यचूलिका पणमिय सुयमुणिणमियं विभिण्णकम्माचलं महावीरं। सुविदिदपदत्थणिवहं वोच्छेयं तच्चरूवमणुकमसो।।91|| अन्वय - विभिण्णकम्माचलं सुविदिदपदत्थणिवहं महावीरं पणमिय सुयमुणिणमियं तच्चरूवमणुकमसो वोच्छेयं । ( 26 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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