Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 21
________________ उक्तं च - 2. * "अण्णोण्णं पविसंता देता ओगासमणमण्णस्स। मेलंता वि य णिच्चं सगं सहावं ण विजहंति ॥" अर्थ - जीवादि छह द्रव्य यद्यपि परस्पर एक दूसरे में प्रवेश कर रहे हैं। एक दूसरे को अवकाश दे रहे हैं और निरन्तर एक दूसरे से मिल रहे हैं तथापि अपना स्वभाव नहीं छोड़ते हैं। (पंचास्तिकाय 7) जीवाणंताणंता जीवादो पोग्गला अणंतगुणा। धम्मतियं एगेगं लोयपदेसप्पमाकालो ॥33॥ अन्वय- जीवाणंताणंता जीवादो पोग्गला अणंतगुणा धम्मतियं एगेगं कालो लोयपदेसप्पमा। अर्थ- जीव अनंतानत, जीव द्रव्य से पुद्गल अनंतानंत गुणित, धर्म, अधर्म और आकाश एक-एक अखण्ड द्रव्य और काल द्रव्य लोक के प्रदेश के बराबर जानना चाहिये । लोयपदेसेगेगे एगेगा संठिया हु जे मुक्खा । कालाणू ते सव्वे मिलिदा वि असंखमाणा हु।।34।। अन्वय - लोयपदेसेगेगे जे मुक्खा कालाणू एगेगा संठिया ते - सव्वे मिलिदा असंखमाणा हु। __ अर्थ - लोक के प्रदेशों पर अर्थात् एक-एक प्रदेश पर जो एकएक स्वतंत्र कालाणु स्थित हैं । वे सभी कालाणु मिलने पर असंख्यात प्रमाण हैं। समयावलि उस्सासाथोवलवाणालियामुहुत्तदिणं। पक्खमासो दु अयणा वरिसजुगादी य ववहारो।।35|| अन्वय- समयावलि उस्सासा थोवलवाणालियामुहुत्तदिणं दु पक्खमासो अयणा य वरिसजुगादी ववहारो । ( 10 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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