Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 26
________________ अन्वय - मुत्तो संसारी मुत्तो जीवो सया अमुत्तो अह हि पुग्गलमेव मुत्तो हु धम्मचऊअमुत्तो हु होति । अर्थ - संसारी जीव मूर्तिक और मुक्त जीव सदा अमूर्त है । निश्चय से पुद्गल द्रव्य मूर्त तथा धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य अमूर्तिक होते हैं। वण्णचउक्केण जुदो मुत्तो रहिदो अमुत्ति सण्णो हु। एग जीवमखंड णाणाजीवं पडुच्च खंडाणि ।।49।। अन्वय - वण्णचउक्केण जुदो मुत्तो रहिदो अमुत्ति सण्णो हु एगं जीवमखंडं णाणाजीवं पडुच्च खंडाणि। अर्थ - वर्ण, रस, गंध , स्पर्श इन चारों से युक्त मूर्तिक और इन चार अर्थात् वर्ण, रस, गंध, स्पर्श से रहित अमूर्तिक संज्ञक हैं । एक जीव की अपेक्षा जीव अभेदरूप अर्थात् अखंड है , नाना जीवों की अपेक्षा खंड अर्थात् भेद रूप जानना चाहिए । जलअणलादिहिणासंण यादिजो पुग्गलो हुपरमाणू। सो उच्चदे अखंडो णाणाणू होंति 'खंडाणि ||50 अन्वय - जलअणलादिहि जो पुग्गलो परमाणू णासं ण यादि सो अखंडो उच्चदे णाणाणू खंडाणि होति। .... , अर्थ :- जल, अग्नि आदि से जो पुद्गल परमाणु नाश को प्राप्त नहीं होता है, वह पुद्गल परमाणु अखंड अर्थात् अभेदरूप कहलाता है। अनेक अणु खंड रूप होते हैं। .. धम्माधम्मागासा पत्तेयमखंडसण्णिदा णेया । कालाणेगमखंडोणाणा कालाणु खंडाणि ।।51।। अन्वय - धम्माधम्मागासा पत्तेयं अखंडसण्णिदा णेया कालाणेगमखंडो णाणा कालाणु खंडाणि । 50. (1) खंधाणि ( 15 ) . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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