Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 17
________________ गति में हेतु है वह धर्म द्रव्य है। स्थिति क्रिया को परिणत जीव और पुद्गल द्रव्यों जो स्थिति में हेतु है, वह अधर्म द्रव्य है । सभी द्रव्यों को जो अवकाश अर्थात् ठहराने में समर्थ है वह आकाश द्रव्य है , काल द्रव्य भी पर्यायों के परिवर्तन में कारण है। इस प्रकार सूत्र में (से) सभी द्रव्यों के लक्षण जानो। विशेषेण द्रव्यलक्षणमाह - चेदा उवओगजुदो मुत्तिविरहिदो सदेहमाणो दु । कत्ता भोत्ता संसारत्थो पुण उड्ढगई सिद्धो ||19|| अन्वय - चेदा उवओगजुदो मुत्तिविरहिदो सदेहमाणो दु कत्ता भोत्ता संसारत्थो पुण उड्ढगई सिद्धो। अर्थ - जीव उपयोग गुण से युक्त, अमूर्तिक, अपनी देह के प्रमाण, कर्त्ता, भोक्ता , संसारी, अर्ध्वगति स्वभाव वाला और सिद्ध है। जीवो रूवि अरूवि पोग्गलदव्वं तु रूवि णियमेण । धम्मादी चत्तारो अरूविणो सव्वदा होति ।।2011 अन्वय - जीवो रूवि अरूवि पोग्गलदव्वं तु णियमेण रूवि धम्मादी चत्तारो सव्वदा अरूविणो होति । अर्थ- जीव रूपी और अरूपी दोनों प्रकार का, पुद्गल द्रव्य नियम से रूपी तथा धर्मादि चार द्रव्य अर्थात् धर्म , अधर्म, आकाश और काल हमेशा से अरूपी हैं। संसारत्थो जीवो रूवि सिद्धा अरूविणो होति । कम्मतयणिम्मुक्का अणंतणाणाइ गुणकलिया ।।21|| अन्वय - कम्मतयणिम्मुक्का अणंतणाणाइ गुणकलिया संसारत्थो जीवो रूवि सिद्धा अरूविणो होति ।। अर्थ - संसार में स्थित जीव रूपी तथा द्रव्यकर्म , भावकर्म एवं नोकर्म इन तीन कर्मों से रहित, अनंतज्ञानादि गुणों से युक्त सिद्ध जीव अरूपी होते हैं। ( 6 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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