Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 15
________________ अन्वय - जीवा हु पुग्गला वि य घम्माधम्मा तहेव आयासं संति जदो तच्चण्हू तेणेदे अत्थि त्ति वदंति । - अर्थ - जीव , पुद्गल, धर्म , अधर्म और आकाश (सत् रूप) हैं । इसलिये तत्त्वज्ञाता इनको अस्ति इस प्रकार कहते हैं। जम्हा बहूपदेसा तम्हा काया हवंति णियमेण । जीवादिगा य एदेपंचत्थिकाय सण्णिदा तत्तो।।12।। अन्वय - जम्हा बहुपदेसा णियमेण तम्हा काया हवंति तत्तोय जीवादिगा एदे पंचत्थिकाय सण्णिदा। अर्थ - जिस कारण से उन द्रव्यों में बहुत प्रदेश नियम से हैं। इसलिए वे कायवान् होते हैं। इसीलिये ये जीवादि पाँच द्रव्य पंचास्तिकाय संज्ञा को प्राप्त हैं अर्थात् पंचास्तिकाय कहलाते हैं। जीवेऽसंखपदेसा संखासंखा तहा अणंता य । मुत्ते तिविहपदेसा धम्मदुगेलोयमिददेसा।।13।। अन्वय - जीवेऽसंखपदेसा मुत्ते तिविहपदेसा संखासंखा तहा अणंता य धम्मदुगे लोयमिददेसा । अर्थ- जीव में असंख्यात प्रदेश , पुद्गल द्रव्य में तीन प्रकार के प्रदेश संख्यात, असंख्यात तथा अनंत , धर्म और अधर्म द्रव्य में लोक के समान (असंख्यात) प्रदेश होते हैं। आगासे हु अणंता पदेससंखा हवंति कालस्स । जेणदु एगपदेसा तेण ण सो कायसण्णिदो होइ।।14।। अन्वय - हु आगासे पदेससंखा अणंता हवंति जेण दुकालस्स एगपदेसा तेण सो कायसण्णिदो ण होइ। अर्थ- आकाश के प्रदेशों की संख्या अनंत है जिस कारण काल द्रव्य एक प्रदेशी है , उस कारण वह (काल) काय संज्ञक नहीं है। इति पंचास्तिकायस्वरूपनिरूपणम् ॥ ( 4 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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