Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 12
________________ सिरिसुयमुणिविदो परमागमसारो घाइचउक्कविरहिया अणंतणाणाइगुणगणसमिद्धा । चंदक्ककोडिभासिददिव्वंग जिणा जयंतु जगे' ||1|| अन्वय - घाइचउक्कविरहिया अणंतणाणाइगुणगणसमिद्धा चंदक्ककोडिभासिददिव्वंग जिणा जगे जयंतु ।।1।। अर्थ - घातिया चतुष्क से रहित, अनंत ज्ञानादि गुणों के समूह से सहित, कोटि चन्द्रमा की कांति से सुशोभित है शरीर जिनका, ऐसे जिन संसार में जयवंत हों। दससहजादादिसया घाइक्खयदो दु संभवा दस हि । देवेहिं कयमाणा चोद्दस सोहंति वीरजिणे ||2|| अन्वय - हि वीरजिणे दससहजादादिसया घाइक्खयदो दु संभवा दस देवेहिं कयमाणा चोदस सोहंति ।।2।। अर्थ- निश्चय से भगवान वीर जिनेन्द्र जन्मकृत दश अतिशयों से, घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न दस अतिशयों से तथा देवों के द्वारा किए जाने वाले चौदह अतिशयों से सुशोभित होते हैं। दिव्वज्झुणि सुरदुंदुहि छत्तत्तय सिंहविट्ठरं चमरं । राजंति जिणे वीरेभावलयमसोगकुसुमविट्ठीय।।3।। अन्वय - वीरे जिणे दिव्वज्झुणि सुरदुंदुहि छत्तत्तय सिंहविट्ठरं चमरं भावलयमसोगकुसुमविट्ठी य राजंति ।।3।। अर्थ - वीर जिनेन्द्र के दिव्यध्वनि, सुरदुन्दभि, तीन छत्र, सिंहासन, चमर, आभामंडल, अशोक वृक्ष और पुष्प वृष्टि ये आठ प्रातिहार्य शोभायमान होते हैं। 1. (1) जये ( 1 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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