Book Title: Paramagamsara
Author(s): Shrutmuni, Vinod Jain, Anil Jain
Publisher: Varni Digambar Jain Gurukul Jabalpur

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Page 10
________________ मिच्छतिये उवरुवरिं मंदत्तेणासुहोवओगो दु । अवदतिये सुद्धवओगसादगुवरुवरि तारतम्मेण || सुहउवओगो होदि हु तत्तो अपमत्तपहुदि खीणते । सुद्धवओगजहण्णो मज्झुक्कस्सो य होदि त्ति ।। अर्थ- मिथ्यावृष्टि, सासादन और मिश्र इन तीन गुणस्थानों में ऊ पर-ऊपर मन्दता से अशुभ-उपयोग रहता है। उसके आगे असंयत सम्यग्दृष्टि, श्रावक और प्रमत्त संयत इन तीन गुणस्थानों में परम्परा से शुद्ध उपयोग का साधक ऊपर-ऊपर तारतम्य से शुभ उपयोग रहता है। तदनन्तर अप्रमत्त आदि गुणस्थान से क्षीणकषाय पर्यंत इन छह गुणस्थानों में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से शुद्ध उपयोग वर्तता है। (गा. 187-24, 25) इस प्रकार का गाथाओं में स्पष्ट उल्लेख अन्यत्र ग्रंथो में अप्राप्य इस प्रकार ग्रंथ में किचिंत विशेषताएँ उपलब्ध है । इस ग्रंथ का कार्य करते समय हम लोगों ने गुरुकुल पुस्तकालय का पूर्णतः उपयोग किया है । कार्य करते समय ब्र.जिनेश जी का अपूर्व सहयोग रहा। आपके द्वारा समस्त प्रकार की आवश्यक सुविधा प्रदान की गई जिससे हम लोगों का कार्य निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हो गया। अतः ब्र. जिनेश जी के हम लोगों अत्यधिक कृतज्ञ है। हम लोगअपने शिक्षा गुरु डॉ. प. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य का हृदय से आभार व्यक्त करते हैं उन्हीं की कृपा से यह कृति अनुवादित / सम्पादित हो सकी। आशा है विद्वत् समाज के साथ-साथ जन सामान्य भी इस कृति से लाभान्वित हो सकेगें । यथासंभव इस कार्य को करते समय हम लोगों ने सावधानी रखी है फिर भी प्रमादवश कुछ त्रुटियाँ शब्द व अर्थ जन्य रह गई हो तो विज्ञजन हमें अवश्य ही सूचित करेगें जिससे भविष्य में उन गलतियों की पुनरावृत्ति न हो सके । वीर निर्वाण महोत्सव सन् 2000 ब्र. विनोद कुमार जैन ब्र. अनिल कुमार जैन ( III ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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