Book Title: Param Sakha Mrutyu
Author(s): Kaka Kalelkar
Publisher: Sasta Sahitya Mandal Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 8
________________ प्रकाशकीय सामान्यतया हम मृत्यु का कभी विचार नहीं करते । इस प्रकार जीते हैं, मानो कभी मरने वाले नहीं हैं, या यों मानकर जीते हैं कि मरना तो है, किन्तु इतनी जल्दी नहीं। ___परिणाम यह होता है कि हमारा जीवन प्रायु की दृष्टि से कितना ही लम्बा क्यों न हो, जीवन की दृष्टि से छिछला ही रहता है । ऐसे छिछले जीवन में अचानक एक दिन मृत्यु प्राकर हमारा दरवाजा खटखटाने लगती है और उसे देखकर हम चौंक उठते हैं । पूछते हैं, "यह क्या हुआ? हमें इतनी जल्दी तो जाना नहीं था ! अभी कितना ही काम करने को बाकी है । हम अभी तक ठीक तरह से जी भी नहीं पाये हैं और अचानक यह कहाँ से आ टपकी ?" किन्तु एक बार दरवाजा खटखटाने वाली मृत्यु कभी खाली हाथ वापस नहीं लौटती। वह तो हमें लेकर जाने के लिए ही आती है। जब इस बात की गहरी प्रतीति हमें होती है कि अब हमें जाना ही होगा, तभी हम सोचने लगते हैं—'यह मत्यु क्या है ! यह कहाँ से आती है ? आती ही क्यों है ? वह अब हमें कहां ले जायेगी ? वहां क्या होगा ?" और ठीक उत्तर हम नहीं पाते । बस, मामला खत्म । यह समझकर हम मत्यु से डरने लगते हैं। असल में जीवन अगर उत्कटता से हमें जीना हो, तो मृत्यु का खयाल हमेशा ही जागृत रहना चाहिए। हमारे जन्म के साथ अबतक एक निष्ठावान साथी की तरह अगर कोई कदम-से-कदम मिलाकर चलती है, तो वह मृत्यु ही है । वह कभी हमारा साथ नहीं छोड़ती। इसलिए उसका अखड स्मरण करके ही हमें जीना चाहिए। इस तरह की जागृति रखनी चाहिए, मानो हमारा आज का दिन आखिरी दिन हो सकता है। कभी-कभी वह आखिरी होता भी है । मृत्यु के सान्निध्य में जीने से ही हम उत्कट जीवन जी सकते हैं। उत्कट जीवन ही सच्चा

Loading...

Page Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 160