Book Title: Nitivakyamrut
Author(s): Somdevsuri, Sundarlal Shastri
Publisher: Gyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar

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Page 8
________________ - [ २ ] विद्याध्ययन व विद्या-वृद्ध पुरुषों की संगति न करनेका दुष्परिणाम, शिप्ट पुरुषों की संगतिका माहात्म्य, राजगुरुओंके मद्गुण, शिष्टोंको विनयसे लाभ, राज-माहात्म्य, दुष्टसे विद्या-प्राप्तिका निषेध, शिष्यप्रकृति, कुजीन और सच्चरित्र शिवकोंका प्रभाव, हठी राजा एवं राजाके प्रति कर्तव्य ६ अान्वीक्षिकी समुद्देश अध्यात्मयो। (धमध्यान), उसमें उपयोगी पार्थिवी-आदि धारणाओं का स्वरूप-जाभ, अत्मा के फोडास्थान, बाम-स्वरूप, उसका पुनर्जन्स, मन, इन्द्रिय, विषय, मान एवं सुखका साक्षण, सुख भी जिस समय दुःस्व समझा जाता है, सांसारिक सुखके कारण और उनका लक्षण, दुःखका स्वरूप, दुःस्व भी जिस स्थिति में सुख होता है, दुःखोंके भेद, उनके लक्षण, दोनों लो कॉम दुखी-धरुष १० इच्छाका स्वरूप, दोष-शुद्धिका उपाय, उत्साह, प्रयत्न और संस्कारका लक्षण, पुनर्जन्म साधक संस्कार भोर शरीरका लक्षण, नासिक दर्शनका स्वरूप व फल, मनुष्य-कर्तव्य में सर्वथा निर्दाताका अभाव, अधिक दया व शान्तिसे लौकिक हानि, राजकतब्ध (दुर्दानप्रद), निन्दाका पात्र, पराक्रमकीन पुरुषकी इति, धर्म-प्रतिष्ठा, दुष्ट-निग्रह न करनेसे हानि, राज्यपदका परिणाम, खलमैत्री सर्व स्त्रियों पर विश्वास करनेका कटुकफल ७ त्रयी-समुददेश--- ११६-१३० वेगी विद्याका स्वरूप, उससे लाभ, धर्मग्रन्योंका बदमें अन्तर्भाव, ब्राह्मण-आदि तीन वकि समान कर्तव्य, द्विजातिका स्वरूप, ब्राह्मण और क्षत्रियों के कतव्य, श्रीपेण राजाद्वारा अपने युवराज दीर पुत्र श्रीवर्मा (चन्द्रमम तीर्थङ्करको पूर्वपर्याय) के प्रति दिया हुआ क्षात्र धर्मका नैतिक मदुपदश, वैश्य घ शुद्र-कर्तव्य, प्रशस्त शुद्रोंका लक्षण, व उनमें ईश्वरोपासना-प्रादिकी पात्रता, ब्राह्मण आदि चारी वणीका समान धर्म तथा साधारण-विशेषधर्मका विश्लेषण साधुओं का कर्तव्य, उससे मयुत होने पर शुद्धिका उराय, अभीष्टदेवकी प्रतिष्ठा, श्रद्धा-होनी ईश्वरोपासनासे झानि, कतैव्य-यतकी शुद्धि, धर्म, अर्थ व काम पुरुषार्थकी प्राप्तिका उपाय, कर्तव्यमयत गजाकी कही मालोचना. कर्तव्य-च्यत प्रजाके प्रति राज-कर्तव्य, प्रजा-पालनसे लाभ, अन्य मतोंके तपस्वियों द्वारा राज सम्मान, -अनिष्टका निर्णय, मनष्य-कत्तव्य (विनय) सदान्त, ब्राह्मण-मादिकी प्रकृति, उनकी क्रोध-शान्तिका उपाय, बरिणकोंकी श्रीवृद्धि-मादि १३८-५२८ ८ वार्ता समुदेश १३६-१४८ वार्ता विद्या, उससे राजकीय लाभ, सांसारिक सुखके कारण, फसस के समय धान्य-ममह न करने, आमदनीक विना केवल खर्च करनेसे तथा राजाकी धनलिमामे हानि, गोरक्षा, विदेशस माल पानेमें प्रविबन्धका कारण, त्यापार-क्षतिक कारणा, व्यापारियों की गोल-माकीकी देखरेख, राष्ट्रके कण्टक, उनके निर्मूलनका उपाय, अन्न संग्रह द्वारा अकाल उत्पन्न करनेवाले व्यापारियोम राष्ट्रकी हानि एवं उनकी कड़ी आलोचमा, तथा शरीर-रक्षार्थ मनुष्य-व्य व इप्टान्त १३६-१४८ ६ दंडनीति-ममुद्देश १४६-१५२ दंड-माहात्म्य वरूप, अपराध निय, देहनातिका उददेश्य, छिद्रान्वी बंध और राजाकी कड़ी आलोचना, मनाद्रारा अगला धन, नित विधानका दुष्परिणाम १४-१५२ - -

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