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वर्ग ३ अध्ययन १ अंगति अनगार का उपपात
७३ ........................................................... प्रभु पार्श्वनाथ के द्वारा उपदिष्ट श्रुत चारित्र रूप धर्म को सुना और हृदय में धारण कर विनयपूर्वक प्रभु से निवेदन किया - "हे भगवन्! मैं अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप कर आपके पास प्रव्रजित होना चाहता हूँ।" तदनन्तर गंगदत्त के समान प्रव्रजित हुआ यावत् गुप्त ब्रह्मचारी अनगार बन गया।
विवेचन - कार्तिक सेठ और गंगदत्त के समान अंगति गाथापति प्रभु के दर्शनार्थ निकले और प्रव्रजित हुए। कार्तिक सेठ और गंगदत्त का विस्तृत वर्णन जानने के लिए जिज्ञासुओं को संघ द्वारा प्रकाशित भगवती सूत्र (१-७) का अवलोकन करना चाहिए।
अंगति अनगार का उपपात तए णं से अंगई अणगारे पासस्स अरहओ तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ जाव भावेमाणे बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेइत्ता विराहियसामण्णे कालमासे कालं किच्चा चंदवडिंसए विमाणे उववा(य)इयाए सभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए चंदे जोइसिंदत्ताए उववण्णे॥१०॥ ____ कठिन शब्दार्थ - विराहियसामण्णे - विराधित चारित्र-संयम विराधना के कारण, देवसयणिज्जसि- देव शय्या में, देवदूसंतरिए - देवदूष्य से आच्छादित, उववाइयाए सभाए - उपपात सभा में। ____भावार्य - तब अंगति अनगार ने अर्हत् पार्श्वप्रभु के तथारूप स्थविरों के समीप सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। अध्ययन करके बहुत से चतुर्थ भक्त यावत् अपनी आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक श्रमण पर्याय का पालन कर अर्द्ध मासिक संलेखना से अनशन द्वारा तीस भक्तों का छेदन कर काल के समय काल करके संयम विराधना के कारण चन्द्रावतंसक की उपपात सभा में देवदूष्य वस्त्रों से आच्छादित देवशय्या में ज्योतिष्केन्द्र-ज्योतिषियों के इन्द्र चन्द्र के रूप में उत्पन्न हुआ।
विवेचन - संयम विराधना दो प्रकार की है - मूलगुण विराधना और उत्तरगुण विराधना। पांच नहाव्रतों में दोष लगाना मूल गुण विराधना है तथा पिण्ड-विशुद्धि आदि में दोष लगाना उत्तर
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