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पुष्पिका सूत्र
ज्ञाति-स्वजन बंधुओं के सामने अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब का भार सौंप कर और उनसे पूछ कर बहुत से लोहे की काहियों, कुडछियों और तांबे के बने हुए पात्रों को लेकर जो गंगातीरवासी वानप्रस्थ तापस हैं। यथा-अग्निहोत्री, वस्त्रधारी, भूमिशायी, यज्ञ करने वाले, श्राद्ध करने वाले, पात्र धारण करने वाले, हुम्बउट्ठ ( वानप्रस्थ तापस विशेष ) दंतोद्खलिक - दांतों से चबाको तुषहीन करके खाने वाले, उन्मज्जक, संमज्जक, निमज्जक, संप्रक्षालक दक्षिण कूल - दक्षिण तटवासी, उत्तरकूलवासी, शंखध्मा, कूलध्मा, मृगलुब्धक - मृग को मारकर उसी के मांस से जीवन यापन करने वाले, हस्तितापस, उद्दण्डक, दिशाप्रोक्षिक, वल्कवासी, बिलवासी, जलवासी, वृक्षमूलक, जलभक्षी, वायुभक्षी, शैवालभक्षी, मूलाहारी, कंदाहारी, त्वचाहारी, पत्राहारी, पुष्पाहारी, जाहारी, सड़े हुए कंद, मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प फल को खाने वाले, जल के अभिषेक से कठिन शरीर वाले, सूर्य की आतापना और पंचाग्नि ताप से, अंगार शौल्य एवं कन्दुशौल्य शरीर को कष्ट देते हुए विचरते हैं। उनमें से जो दिशाप्रोक्षिक तापस हैं, उनके पास दिशाप्रोक्षिक रूप में मैं प्रव्रजित होऊँ और प्रव्रजित होकर इस प्रकार का अभिग्रह करूँगा कि - यावज्जीवन निरन्तर षष्ठ-षष्ठ भक्त (बेले बेले) रूप दिशा चक्रवाल तपस्या करता हुआ सूर्य के अभिमुख भुजाएं उठा कर आतापना भूमि में आतापना लूँगा । उसने इस प्रकार का संकल्प किया और संकल्प करके यावत् कल- सूर्योदय होने पर बहुत लोह कडाह आदि लेकर यावत् दिशा प्रोक्षिक तापस के रूप में प्रव्रजित हो गया। प्रव्रजित हो कर पूर्वोक्तानुसार अभिग्रह ग्रहण करके प्रथम षष्ठक्षपण तप को स्वीकार कर विचरने लगा ।
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विवेचन प्रस्तुत सूत्र में दर्शाया गया है। मिथ्यात्व से युक्त हो कर जीव क्या-क्या क्रियाएं करता है। सोमिल के समय में भी अनेक मत तथा सम्प्रदाय प्रचलित थे जिनकी अलग-अलग मान्यताएं और धारणाएं थीं । सोमिल ब्राह्मण अपने समय में प्रचलित उन मतों में से दिशाप्रोक्षक मत स्वीकार कर दिशा- प्रोक्षक तापस बना ।
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मूल पाठ में “दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं" - दिक् (दिशा) चक्रवाल तप शब्द आया है जिसका अभिप्राय है - तपस्वी तपस्या के पारणे के लिये अपनी तपोभूमि की चारों दिशाओं में फलों को इकट्ठा करके रखे। बाद में तपस्या के पहले पारणे में पूर्व दिशा में स्थित फल से पारणा करे। दूसरा पारणा आने पर दक्षिण दिशा में स्थित फल से पारणा करे। इसी प्रकार अन्य पारणा आने पर क्रमशः पश्चिम और उत्तर दिशाओं में स्थित फल का आहार करे। इस प्रकार के पारणे वाली तपस्या को "दिक् (दिशा) चक्रवाल तप" कहते हैं।
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