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सोमा ब्राह्मणी के मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न होगा कि - मैं इन बहुत से अभागे दुःखदायी, एक साथ थोड़े-थोड़े दिनों के बाद उत्पन्न हुए छोटे बड़े और नवजात शिशुओं में से कोई उत्तानशयन करके यावत् पेशाब आदि करने से उनके मल मूत्र और वमन से सनी-लिपी पुत्ती अत्यंत दुर्गंधमयी होकर राष्ट्रकूट के साथ भोगों को भोग नहीं पा रही हूँ। वे माताएं धन्य हैं यावत् उन्होंने मनुष्य जन्म और जीवन का फल पाया है जो वन्ध्या हैं, प्रजननशीला नहीं होने से जानुकूपर माता हैं जो सुगंधित द्रव्यों से सुवासित हो कर मनुष्य संबंधी भोगों को भोगती हुई विचरती हैं- समय बिताती हैं लेकिन मैं अधन्या हूँ, अपुण्या हूँ, निर्भागी हूँ कि राष्ट्रकूट के साथ विपुल भोगों को भोग नहीं सकती हूँ।
. आर्याओं का धर्मोपदेश तेणं कालेणं तेणं समएणं सुव्वयाओ णाम अज्जाओ इरियासमियाओ जाव बहुपरिवाराओ पुव्वाणुपुव्विं....जेणेव विभेले संणिवेसे....अहापडिरूवं उग्गहं जाव विहरंति। तए णं तासिं सुव्वयाणं अज्जाणं एगे संघाडए विभेले संणिवेसे उच्चणीय० जाव अडमाणे रटकूडस्स गिहं अणुपविटे। तए णं सा सोमा माहणी ताओ अज्जाओ एज्जमाणीओ पासइ पासित्ता हट्ट० खिप्पामेव आसणाओ अग्भुटेइ अब्भुट्टित्ता सत्तट्ठपयाइं अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता विउलेणं असण ४ पडिलाभेइ पडिलाभेत्ता एवं वयासी-एवं खलु अहं अज्जाओ! रटकूडेणं सद्धिं विउलाई जाव संवच्छरे संवच्छरे जुगलं पयामि, सोलसहिं संवच्छरेहिं बत्तीसं दारगरूवे पयाया, तए णं अहं तेहिं बहुहिं दारएहि य जाव डिम्भियाहि य अप्पेगइएहिं उत्ताणसेज्जएहिं जाव मुत्तमाणे हिं दुज्जाएहिं जाव णो संचाएमि....विहरित्तए, तं इच्छामि गं अहं अजाओ! तुम्हं अंतिए धम्म णिसामेत्तए। तए णं ताओ अज्जाओ सोमाए माहणीए विचित्तं जाव केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेंति॥१३४॥ ___ भावार्थ - उस काल और उस समय में ईर्या आदि समितियों से युक्त यावत् बहुत-सी आर्याओं के साथ सुव्रता आर्या पूर्वानुपूर्वी क्रम से विहार करती हुई उस विभेल संन्निवेश में आएगी और यथोचित्त अवग्रह लेकर वहाँ ठहरेगी। तब उस सुव्रता आर्याओं का एक संघाडा विभेल सन्निवेश के उच्च, नीच, मध्यम कुलों में घर सामुदानिकी भिक्षा के लिए परिभ्रमण करता हुआ राष्ट्रकूट के घर में
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