Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 152
________________ वर्ग ४ अध्ययन १ भूता द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण १३५ तए णं से सुदंसणे गाहावई भूयं दारियं व्हायं जाव विभूसिय-सरीरं पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं दुरुहेइ दुरूहित्ता मित्तणाइ० जाव रवेणं रायगिहं णयरं मझमझेणं जेणेव गुणसिलए चेइए तेणेव उवागए छत्ताईए तित्थयराइसए पासइ पासित्ता सीयं ठावेइ ठावेत्ता भूयं दारियं सीयाओ पच्चोरहेइ॥१५४॥ ____ भावार्थ - तदनन्तर उस सुदर्शन गाथापति ने स्नान की हुई यावत् आभूषणों से अलंकृत शरीर वाली भूता दारिका को पुरुषसहस्रवाहिनी शिविका पर आरूढ़ किया और मित्रों, ज्ञातिजनों आदि के साथ यावत् वाद्य घोषों के साथ राजगृह नगर के मध्य में होते हुए जहाँ गुणशीलक उद्यान था, वहाँ आया, तीर्थंकरों के छत्रादि अतिशयों को देखा और देख कर पालकी को रोका तथा उसमें से भूता दारिका को नीचे उतारा। ____तए णं तं भूयं दारियं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव पासे अरहा पुरिसादाणीए तेणेव उवागया तिक्खुत्तो वंदंति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! भूया दारिया अम्हं एगा धूया इट्ठा०, एस णं देवाणुप्पिया! संसार भउविग्गा भीया जाव देवाणुप्पियाणं अंतिए मुण्डा जाव पव्व(या)यइ, तं एवं णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सिस्सिणिभिक्खं। अहासुहं देवाणुप्पिया!०॥१५५॥ भावार्थ - तत्पश्चात् माता-पिता भूता दारिका को आगे करके पुरुषादानीय अर्हन्त पार्श्व प्रभु के समीप आकर तिक्खुत्तो के पाठ से वंदना नमस्कार कर इस प्रकार बोले-'हे देवानुप्रिय! यह भूता दारिका हमारी इकलौती पुत्री है। यह हमें इष्ट है, प्रिय है। हे भगवन्! यह संसार भय से उद्विग्न (भयभीत) होकर आप देवानुप्रिय के पास मुंडित होकर प्रव्रजित होना चाहती है। अतः हे देवानुप्रिय! हम इसे आपको शिष्या रूप में भिक्षा देते हैं। आप इस शिष्या रूप भिक्षा को स्वीकार करें। तब भगवान् ने फरमाया-'हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो, धर्मकार्य में प्रमाद मत करो।' भूता द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण तए णं सा भूया दारिया पासेणं अरहया....एवं वुत्ता समाणी हट्ट० उत्तरपुरस्थिमं सयमेव आभरणमल्लालंकारं भो(उम्)मुयइ जहा देवाणंदा पुष्फचूलाणं अंतिए जाव गुत्तबम्भयारिणी॥१५६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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