Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 170
________________ वर्ग ५ अध्ययन १ निषध देव रूप में उपपात १५३ भविष्य विषयक पृच्छा तए णं से वरदत्ते अणगारे णिसढं अणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव अरहा अरि?णेमी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव एवं वयासी-एवं खुल देवाणुप्पियाणं अंतेवासी णिसढे णामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणीए, से णं भंते! णिसढे अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कहिं उववण्णे?॥१७ ।। भावार्थ - तब वरदत्त अनगार निषधकुमार को कालधर्म प्राप्त हुआ जान कर भगवान् अरिष्टनेमि के पास आए और आकर यावत् इस प्रकार निवेदन किया - 'हे देवानुप्रिय! आपका निषध अनगार नामक शिष्य जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था वह काल के समय काल करके कहां गया है? कहां उत्पन्न हुआ है?' निषध देव रूप में उपपात वरदत्ताइ अरहा अरिट्ठणेमी वरदत्तं अणगारं एवं वयासी-एवं खलु वरदत्ता! ममं अंतेवासी णिसढे णामं अणगारे पगइभद्दे जाव विणीए ममं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जित्ता बहुपडिपुण्णाई णववासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता बायालीसं भत्ताई अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कंते. समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उठं चंदिमसूरियगहगणणक्खत्तताराख्वाणं सोहम्मीसाणं जाव अच्चुए तिणि य अट्ठारसुत्तरे गेविजविमाणावाससए वीइवइत्ता सवट्ठसिद्धविमाणे देवत्ताए उववण्णे, तत्थ णं देवाणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं णिसढस्सवि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई पण्णता॥१८०॥ भावार्थ - 'वरदत्त!' इस प्रकार संबोधन करके भगवान् अरिष्टनेमिनाथ ने वरदत्त अनगार से कहा - इस प्रकार हे वरदत्त! मेरा निषध अनगार नामक शिष्य जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था, मेरे तथारूप स्थविरों से सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन करके नौ वर्ष की दीक्षा पर्याय पाल कर, बयालीस भक्तों को अनशन से छेद कर आलोचना प्रतिक्रमण पूर्वक काल के समय समाधि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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