Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 168
________________ १५१ वर्ग ५ अध्ययन १ निषधकुमार का चिंतन ........................................................... भावार्थ - वरदत्त मुनि ने भगवान् से प्रश्न किया - हे भगवन्! क्या यह निषधकुमार आप देवानुप्रिय के पास यावत् दीक्षित होने में समर्थ है? भगवान् ने फरमाया - हाँ, हे वरदत्त! यह निषधकुमार दीक्षा लेने में समर्थ है। यह इसी प्रकार है। आपका कथन यथार्थ है आदि कह कर वरदत्त अनगार अपनी आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे। तत्पश्चात् किसी समय भगवान् अरिष्टनेमि प्रभु द्वारिका नगरी से निकले यावत् बाहरी जनपद में विचरने लगे। निषधकुमार जीवाजीव आदि तत्त्वों का जानकार श्रमणोपासक हो गया यावत् वह सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगा। _ निषधकुमार का चिंतन तए णं से णिसढे कुमारे अण्णया कयाइ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता जाव दब्भसंथारोवगए विहरइ। तए णं तस्स णिसढस्स कुमारस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था - धण्णा णं ते गामागर जाव संणिवेसा जत्थ णं अरहा अरिट्ठणेमी विहरइ, धण्णा णं ते राईसर जाव सत्यवाहप्पभिइओ जे णं अरिट्ठणेमि वंदंति णमंसंति जाव पज्जुवासंति, जइ णं अरहा अरिडणेमी पुष्वाणुपुब्दि....णंदणवणे विहरेज्जा तो णं अहं अरहं अरिडणेमि वंदिज्जा जाव पज्जुवासिज्जा।।१७६ ।। - भावार्थ - तत्पश्चात् वह निषधकुमार किसी समय जहां पौषधशाला थी वहां आया। आकर दर्भ (घास) के संस्तारक (आसन) पर बैठकर पौषधव्रत ग्रहण कर विचरने लगा। तब उस निषधकुमार को मध्य रात्रि के समय धर्मजागरणा करते हुए इस प्रकार का आंतरिक विचार उत्पन्न हुआ - 'धन्य हैं वे ग्राम, आकर यावत् सन्निवेश जहां अर्हत् अरिष्टनेमिनाथ विचरते हैं तथा वे राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि भी धन्य हैं जो भगवान् अरिष्टनेमिनाथ को वंदना नमस्कार करते हैं यावत् पर्युपासना करते हैं। यदि अर्हत् अरिष्टनेमिनाथ पूर्वानुपूर्वी क्रम से ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यहाँ नंदनवन में पधारे तो मैं उन अर्हत् अरिष्टनेमिनाथ को वंदन नमस्कार करूँगा यावत् पर्युपासना करूंगा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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