Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 166
________________ वर्ग ५ अध्ययन १ वीरांगद अनगार का देवरूप उपपात १४६ भावार्थ - उस काल और उस समय में केशी श्रमण के समान जातिसंपन्न आदि विशेषणों वाले किंतु बहुश्रुत सिद्धार्थ नामक आचार्य अपने विशाल शिष्य परिवार सहित जहां रोहितक नगर का मेघवन उद्यान था और जहां मणिदत्त यक्ष का यक्षायतन था वहां पधारे और यथायोग्य अवग्रह लेकर विराजे। परिषद् दर्शनार्थ निकली। वीरांगद द्वारा प्रव्रज्याग्रहण -- तए णं तस्स वीरंगमस्स कुमारस्स उप्पिं पासायवरगयस्स तं महया जणसई....जहा जमाली य णिग्गओ धम्मं सोच्चा....जं णवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि जहा जमाली तहेव णिक्खंतो जाव अणगारे जाए जाव गुत्तबम्भयारी॥१७॥ भावार्थ - तब उत्तम प्रासाद में रहने वाले उस वीरांगद कुमार ने जन कोलाहल सुना और ' यावत् जमाली के समान दर्शनार्थ निकला। धर्मदेशना सुनी और दीक्षा का निश्चय कर निवेदन किया - हे देवानुप्रिय! मैं माता पिता की आज्ञा लेकर आपके पास प्रव्रजित होना चाहता हूँ यावत् जमाली के समान दीक्षा अंगीकार की और यावत् गुप्त ब्रह्मचारी हो गये। वीरांगद अनगार का देवरूप उपपात ... तए णं से वीरंगए अणगारे सिद्धत्थाणं आयरियाणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ जाव अप्पाणं भावमाणे बहुपडिपुण्णाई पणयालीसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सवीसं भत्तसयं अणसणाए छेइत्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा बम्भलोए कप्पे मणोरमे विमाणे देवत्ताए उववण्णे। तत्थ णं अत्यंगइयाणं देवाणं दससागरोवमाई ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं वीरंगयस्स देवस्स दस सागरोवमाइं ठिई पण्णत्ता॥१७३॥ भावार्थ - तदनन्तर वीरांगद अनगार ने सिद्धार्थ आचार्य के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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