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__ वृष्णिदशा सूत्र
। तए णं से कण्हे वासुदेवे मज्जणघरे जाव दुरूढे, अट्ठ मंगलगा, जहा कूणिए,
सेयवरचामरेहिं उधुव्वमाणेहिं उधुव्वमाणेहिं समुद्दविजयपामोक्खेहिं दसहिं दसारहिं जाव सत्यवाहप्पभिईहिं सद्धिं संपरिवुडे सब्विड्डीए जाव रवेणं बारवई णयरिं मझं-मझेणं....सेसं जहा कूणिओ जाव पज्जुवासइ॥१६८॥
कठिन शब्दार्थ - जहाविभव-इडीसक्कार समुदएणं - यथाविभवऋद्धि सत्कार समुदयेनयथोचित वैभव ऋद्धि सत्कार एवं अभ्युदय के साथ, पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता - पुरुषवागुरापरिक्षिप्ताजन समुदाय को साथ लेकर, सेयवरचामराहि- उत्तम श्रेष्ठ चामरों से, उद्धव्यमाणेहिं - विंजाते हुए। . भावार्थ - उस सामुदानिक भेरी को जोर-जोर से बजाए जाने पर समुद्रविजय प्रमुख आदि दशाह, देवियाँ यावत् अनंगसेना प्रमुख अनेक सहस्र गणिकाएं तथा अन्य बहुत से राजा, ईश्वर यावत् सार्थवाह आदि स्नान कर यावत् प्रायश्चित्त-मंगल आदि कर सर्व अलंकारों से विभूषित हो यथोचित अपने-अपने ऋद्धि सत्कार एवं अभ्युदय के साथ कोई घोड़े पर आरूढ हो कर यावत् जन समुदाय को साथ लेकर जहां कृष्ण वासुदेव थे वहां आये, आकर दोनों हाथों को जोड़ कर यावत् कृष्ण वासुदेव को जय-विजय शब्दों से बधाया। तत्पश्चात् कृष्ण वासुदेव ने कौटुम्बिक पुरुषों को इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियो! शीघ्र ही आभिषेक्य हस्तिरत्न को विभूषित करो और घोड़े, हाथी, रथ एवं पैदल सैनिकों से युक्त चतुरंगिणी सेना को सज्जित कर यावत् मेरी यह आज्ञा वापिस लौटाओ।' ___ तदनन्तर कृष्ण वासुदेव ने स्नानगृह में प्रवेश किया यावत् वस्त्राभूषण से अलंकृत हो आभिषेक्य हस्ति रत्न पर आरूढ हुए। आठ आठ मांगलिक यावत् कोणिक राजा के समान उत्तम श्रेष्ठ चंवरों से विंजाते हुए समुद्रविजय प्रमुख आदि दसों दशा) यावत् सार्थवाहों आदि के साथ समस्त ऋद्धि यावत् भेरी आदि वाद्यों के शब्दों से दिशाओं को मुखरित करते हुए द्वारिका नगरी के मध्य भाग में से निकले, शेष सारा वर्णन कोणिक राजा के समान समझना चाहिये यावत् पर्युपासना करने लगे।
निषधकुमार द्वारा भावकव्रत ग्रहण - तए णं तस्स णिसढस्स कुमारस्स उप्पिं पासायवरगयस्स तं महया जणसहं च....जहा जमाली जाव धम्म सोच्चा णिसम्म वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता
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