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पुष्पिका सूत्र
मेरे द्वारा प्रतिबोधित करने पर भी तुमने उस पर ध्यान नहीं दिया और मौन ही रहे। इस प्रकार मैंने चार दिन तक तुम्हें समझाया किन्तु तुमने ध्यान नहीं दिया। इसके बाद आज पांचवें दिन चौथे प्रहर में इस उदुम्बर वृक्ष के नीचे आकर तुमने अपना कावड़ रखा, बैठने की जगह को साफ किया, लीप पोत कर स्वच्छ किया और काष्ठ मुद्रा से अपना मुंख बांध कर तुम मौन होकर बैठ गए। इस प्रकार हे देवानुप्रिय! तुम्हारी यह प्रव्रज्या दुष्प्रव्रज्या है।
सोमिल पुनः श्वावक बना तए णं से सोमिले तं देवं एवं वयासी-कहं णं देवाणुप्पिया! मम सुपव्वइयं? तए णं से देवे सोमिलं एवं वयासी-जइ णं तुम देवाणुप्पिया! इयाणिं पुव्वपडिवण्णाई पंच अणुव्वयाई० सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरसि तो णं तुज्झ इयाणिं सुपव्वइयं भवेजा। तए णं से देवे सोमिलं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसिं पडिगए। तए णं सोमिले माहणरिसी तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे पुव्वपडिवण्णाई पंच अणुव्वयाइं० सयमेव उवसंपज्जित्ताणं विहरइ॥१०७॥
भावार्थ - यह सुन कर सोमिल ने उस देव से कहा - 'हे देवानुप्रिय! अब आप ही बताइये कि मेरी प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या कैसे हो?' तब देव ने सोमिल ब्राह्मण से इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रिय! यदि तुम पहले ग्रहण किये हुए पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप श्रावक धर्म को स्वयमेव स्वीकार कर विचरण करो तो तुम्हारी यह प्रव्रज्या सुप्रव्रज्या हो जायगी। तत्पश्चात् उस देव ने सोमिल ब्राह्मण को वंदन नमस्कार किया और जिस दिशा से आया था उसी दिशा में लौट गया।
इसके बाद सोमिल ब्राह्मण देव के कथनानुसार पूर्व में स्वीकृत पांच अणुव्रतों और सात शिक्षा व्रतों रूप श्रावक धर्म को स्वीकार कर विचरता है।
सोमिल का शुक्रमहाग्रह में उपपात तए णं से सोमिले बहूहिं चउत्थछट्टट्ठम जाव मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोवहाणेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणइ पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ झूसेत्ता तीसं भत्ताई अणसणाए
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