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पुष्पिका सूत्र
करता है, रचना करके काष्ठ मुद्रा से मुंह बांधता है और मौन हो जाता है। तदनन्तर मध्य रात्रि में सोमिल के समक्ष एक देव प्रकट हुआ और उसने भी उसी प्रकार कहा यावत् वह देव वापिस लौट गया। तत्पश्चात् सूर्योदय होने पर वह वल्कल वस्त्रधारी सोमिल कावड़ और भाण्डोपकरण लेकर यावत् काष्ठमुद्रा से मुंह को बांध कर उत्तराभिमुख होकर उत्तर दिशा की ओर चल दिया।
तए णं से सोमिले चउत्थदिवसे पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव वडपायवे तेणेव उवागए, वडपायवस्स अहे किढिण० ठवेइ ठवेत्ता वेई वड्ढेइ, उवलेवणसंमजणं करेइ जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ, तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं तस्स सोमिलास पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था, तं चेव भणइ जाव पडिगए। तए णं से सोमिले जाव जलंते वागलवत्यणियत्थे किढिणसंकाइयं जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ बंधित्ता उत्तराए० उत्तराभिमुहे संपत्थिए॥१०॥ ___ भावार्थ - उसके बाद वह सोमिल ब्राह्मण चौथे दिन अपराह्न काल में जहाँ बड़ (वट) का वृक्ष था वहाँ आया, आकर वट वृक्ष के नीचे कावड़ रखता है और बैठने के लिए वेदी बनाता है। वेदी को गोबर मिट्टी से लीप कर स्वच्छ बनाता है यावत् काष्ठ मुद्रा से मुंह बांधता है और मौन होकर बैठ जाता है। तत्पश्चात् मध्य रात्रि के समय उस सोमिल ब्राह्मण के समक्ष एक देव.प्रकट होता है और वह भी उसी प्रकार कह कर यावत् लौट जाता है। इसके बाद वल्कल वस्त्रधारी सोमिल ब्राह्मण सूर्योदय होने पर अपनी कावड़ आदि लेकर यावत् काष्ठ मुद्रा से अपने मुंह को बांधता है और उत्तराभिमुख हो उत्तर दिशा में प्रस्थान करता है।
तए णं से सोमिले पंचमदिवसम्मि पच्छावरण्हकालसमयंसि जेणेव उम्बरपायवे तेणेव उवागच्छइ, उम्बरपायवस्स अहे किढिणसंकाइयं ठवेइ, वेइं वइ जाव कट्ठमुद्दाए मुहं बंधइ जाव तुसिणीए संचिट्ठइ। तए णं तस्स सोमिलमाहणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे जाव एवं वयासी-हं भो सोमिला! पव्वइया! दुप्पव्वइयं ते, पढम भणइ, तहेव तुसिणीए संचिट्ठइ। देवो दोच्चंपि तच्चंपि वयइ सोमिला! पव्वइया! दुप्पव्वइयं ते। तए णं से सोमिले तेणं देवेणं दोच्चंपि तचंपि एवं वुत्ते समाणे तं देवं वयासी-कहं णं देवाणुप्पिया! मम दुष्पव्वइयं?। तए णं से देवे सोमिलं माहणं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! तुम पासस्स अरहओ
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