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वर्ग ३ अध्ययन ४ सुभद्रा द्वारा दीक्षा ग्रहण
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तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अज्जाओ वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! सुभद्दा सत्यवाही मम भारिया इट्ठा कंता जाव मा णं वाइया पित्तिया सिम्भिया संणिवाइया विविहा रोगायंका फुसंतु, एस णं देवाणुप्पिया! संसारभउविग्गा भीया जम्म(ण)मरणाणं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुण्डा भवित्ता जाव पव्वयाइ, तं एवं अहं देवाणुप्पियाणं सीसिणीभिक्खं दलयामि,, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया! सीसिणीभिक्खं। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह॥१२१॥ ___ कठिन शब्दार्थ-पुरओ काउं - आगे करके, इट्ठा - इष्ट, कंता - कांत, वाइया - वात, पित्तिया- पित्त, सिम्भिया - कफ, संणिवाइया - सन्निपात, रोगायंका - रोग-आतंक, फुसंतु - स्पर्श कर सकें, संसारभउन्विग्गा - संसार के भय से उद्विग्न, भीया - भीत-डरी हुई, जम्म(ण)मरणाणं - जन्म और मरण से, सीसिणीभिक्खं - शिष्या-भिक्षा को, दलयामि- देता हूँ। ____ भावार्थ - तत्पश्चात भद्रसार्थवाह सुभद्रा सार्थवाही को आगे करके जहाँ सुव्रता आर्या थी वहाँ आया और आकर सुव्रता आर्या को वंदन नमस्कार करके इस प्रकार निवेदन किया - "हे देवानुप्रिय! मेरी यह सुभद्रा भार्या मुझे अत्यंत इष्ट और कांत है यावत् इसको वात, पित्त, कफ और सन्निपात जन्य विविध रोग आतंक आदि स्पर्श न कर सकें इसके लिए मैं सर्वदा प्रयत्न करता रहा हूँ लेकिन हे देवानुप्रिये! अब यह संसार के भय से उद्विग्न होकर एवं जन्म मरण से भयभीत होकर आप देवानुप्रिया के पास मुण्डित होकर यावत् प्रव्रजित होने को तत्पर है, इसलिए हे देवानुप्रिये! मैं आपको यह शिष्या रूप भिक्षा दे रहा हूँ। आप इस शिष्या-भिक्षा को स्वीकार करें।"
भद्र सार्थवाह के इस प्रकार निवेदन करने पर सुव्रता आर्या ने कहा-“हे देवानुप्रिय! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो किन्तु धर्म कार्य में प्रमाद मत करो।"
सुभद्रा द्वारा दीक्षा ग्रहण ___ तए णं सा सुभद्दा सत्यवाही सुव्वयाहिं अज्जाहिं एवं वुत्ता समाणी हट्ठ० सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओभुयइ ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ करेत्ता जेणेव सुव्वयाओ अज्जाओ तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता सुव्वयाओ अज्जाओ तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणेणं वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते
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