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पुष्पिका सूत्र ...........................................................
भावार्थ - तदनन्तर उन निर्ग्रन्थ श्रमणी आर्याओं द्वारा हीलना आदि किये जाने और बारबार रोकने पर उस सुभद्रा आर्या को इस प्रकार आंतरिक विचार यावत् मानसिक संकल्प उत्पन्न हुआ कि जब मैं अपने घर में थी तब मैं स्वाधीन थी लेकिन जब से मैं घर छोड़ कर मुण्डित हो प्रव्रजित हुई हूँ तब से मैं पराधीन हो गई हूँ। पहले ये निर्ग्रन्थ श्रमणियाँ मेरा आदर करती थी, मेरे साथ प्रेम पूर्वक व्यवहार करती थी पर आज ये न तो मेरा आदर करती हैं और न प्रेम का बर्ताव करती हैं। अतः मेरे लिये यह उचित है कि कल प्रातःकाल होने पर मैं सुव्रता आर्या से अलग होकर पृथक् उपाश्रय में जाकर रहूँ। इस प्रकार विचार कर दूसरे दिन सूर्योदय होते ही वह सुभद्रा आर्या, सुव्रता आर्या को छोड़ कर निकल गयी और अलग उपाश्रय में जाकर अकेली ही रहने लगी। - तब वह सुभद्रा आर्या, आर्याओं द्वारा नहीं रोके जाने से, रुकावट नहीं होने के कारण निरंकुश और स्वच्छंद मति होकर गृहस्थों के बालकों में अनुरक्त-आसक्त होकर यावत् उनकी तेल मालिश आदि करती हुई यावत् पुत्र पौत्रादि की इच्छा करती हुई समय व्यतीत करने लगी।
बहुपुत्रिका देवी रूप उपपात तए णं सा सुभद्दा अज्जा पासत्था पासत्थविहारिणी एवं ओसण्णा ओसण्णविहारिणी कुसीला कुसीलविहारिणी संसत्ता संसत्तविहारिणी अहाछंदा अहाछंदविहारिणी बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेइत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे बहुपुत्तियाविमाणे उववायसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिया अंगुलस्स असंखेज्जभागमेत्ताए ओगाहणाए बहुपुत्तियदेवित्ताए उववण्णा॥१२७॥
कठिन शब्दार्थ - पासत्था - पार्श्वस्था-साधु के गुणों से दूर, पासत्यविहारिणी - पार्श्वस्थ विहारीणी, ओसण्णा - अवसन्ना-समाचारी पालन में खिन्न, खंडित व्रत वाली, कुसीला - कुशीलासंज्वलन कषाय के उदय से उत्तर गुण में दोष लगाने वाली आचारभ्रष्ट; संसत्ता - संसक्ता-गृहस्थों से संपर्क रखने वाली, अहाछंवा - स्वच्छंद (निरंकुश), बहुपुत्तिय देवित्ताए - बहुपुत्रिका देवी के रूप. में, उववण्णा - उत्पन्न हुई।
..भावार्थ - इसके बाद वह सुभद्रा आर्या पासत्था-पार्श्वस्था, पार्श्वस्थविहारिणी, अवसन्ना,
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