Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 120
________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सुभद्रा श्रमणोपासिका बनी . १०३ ........................................................ अम्हं एयमटुं कण्णेहिवि णिसामेत्तए किमंग पुण उहिसित्तए वा समायरित्तए वा, अम्हे णं देवाणुप्पिए! णवरं तव विचित्तं केवलिपण्णत्तं धम्म परिकहेमो॥११६॥ . भावार्थ - तब उन आर्याओं ने सुभद्रा सार्थवाही से इस प्रकार कहा - "हे देवानुप्रिय! हम ईर्या समिति आदि समितियों से तथा तीन गुप्तियों से युक्त इन्द्रियों को वश में करने वाली गुप्त ब्रह्मचारिणी निर्ग्रन्थ श्रमणियां हैं। हमको ऐसी बातों को सुनना भी नहीं कल्पता है तो फिर हम इनका उपदेश या आचरण कैसे कर सकती हैं? हे देवानुप्रिये! विशेषता यह है कि हम तुम्हें दान शील आदि नाना प्रकार के केवली प्ररूपित धर्म का कथन कर सकती हैं।" सुभद्रा श्वमणोपासिका बनी तए णं सा सुभद्दा सत्यवाही तासिं अज्जाणं अंतिए धम्मं सोच्चा णिसम्म हजुतुट्ठा. ताओ अज्जाओ तिक्खुत्तो वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासीसद्दहामि णं अज्जाओ! णिगंथं पावयणं, पत्तियामि णं रोएमि णं अजाओ! णिग्गंथं पावयणं, एवमेयं तहमेयं अवितहमेयं जाव सावगधम्म पडिवजए, अहासुहं देवाणुप्पिए! मा पडिबंधं करेह, तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही तासिं अज्जाणं अंतिए जाव पडिवज्जइ पडिवज्जित्ता ताओ अज्जाओ वंदइ णमंसइ वंदित्ता णमंसित्ता पडिविसज्जइ। तए णं सा सुभद्दा सत्थवाही समणोवासिया जाया जाव विहरइ॥११७॥ कठिन शब्दार्थ - सद्दहामि - श्रद्धा करती हूँ, पत्तियामि - प्रतीति करती हूँ, रोएमि - रुचि करती हूँ, एवमेयं - यह ऐसा ही है-सत्य है, तहमेयं - यह तथ्य है, अवितहमेयं - यह अवितथ है। भावार्थ - तत्पश्चात् वह सुभद्रा सार्थवाही उन आर्याओं से धर्म सुन कर उसे हृदय में धारण कर हृष्ट तुष्ट हुई और उन आर्याओं को तीन बार वंदन नमस्कार किया। वंदन नमस्कार करके वह इस प्रकार बोली - 'हे देवानुप्रियो! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करती हूँ, विश्वास करती हूँ, रुचि करती हूँ। आपने जो उपदेश दिया वह सत्य है, तथ्य है और अवितथ है यावत् मैं श्रावक धर्म को अंगीकार करना चाहती हूँ।' आर्यिकाओं ने कहा - 'जैसा तुम्हें सुख हो वैसा करो किन्तु धर्म कार्य में प्रमाद मत करो।' तत्पश्चात् सुभद्रा सार्थवाही ने उन आर्याओं से श्रावक धर्म अंगीकार किया। श्रावक धर्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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