Book Title: Nirayavalika Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 116
________________ वर्ग ३ अध्ययन ४ सुभद्रा की चिंता जन्म नहीं दिया, जाणुकोप्परमाया - जानु कूपरमाता-जिसके स्तनों को केवल घुटने और कोहनियां ही स्पर्श करती थी, संतान नहीं। अथवा-जानु कूपर मात्रा-जिसके गोदी और हाथ दूसरों के पुत्रों के लाड़ प्यार में ही समर्थ थे न कि अपने पुत्रों के लाड़ प्यार में। भावार्थ - बहुपुत्रिका के चले जाने के बाद गौतम स्वामी ने 'हे भदन्त!' इस प्रकार संबोधन कर भगवान् महावीर स्वामी को वंदन नमस्कार किया और पूछा-'हे भगवन्! इस बहुपुत्रिका देवी की दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति और दिव्य देवानुभाव कहां गया? और किसमें समा गया?' भगवान् ने फरमाया-'हे गौतम! वह दिव्य देव ऋद्धि उसके शरीर से निकली थी और उसी के शरीर में समा गई।' ___ गौतम स्वामी ने पुनः पृच्छा की-'हे भगवन्! वह दिव्य देव ऋद्धि उसके शरीर में कैसे विलीन हो गयी?' भगवान् ने फरमाया-'हे गौतम! जिस प्रकार किसी उत्सव आदि के कारण फैला हुआ जन समुदाय वर्षा आदि के कारण कूटाकार शाला-पर्वत शिखर के समान ऊँचे और विशाल घर-में समा जाता है उसी प्रकार वह दिव्य देव ऋद्धि भी बहुपुत्रिका देवी के शरीर में विलीन हो गई-समा गई।' ___गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया - 'हे भगवन्! उस बहुपुत्रिका देवी को वह दिव्य देव ऋद्धि आदि कैसे मिली, कैसे प्राप्त हुई, कैसे उसके उपभोग में आई और उन ऋद्धियों को भोगने में वह कैसे समर्थ हुई ?' . .. इस प्रकार पूछने पर भगवान् ने कहा - 'हे गौतम! उस काल उस समय में वाराणसी नाम की नगरी थी। आम्रशाल वन नामक चैत्य था। उस वाराणसी नाम की नगरी में भद्र नामक सार्थवाह रहता था जो ऋद्धि समृद्धि से समृद्ध यावत् अपरिभूत था। उस भद्र सार्थवाह के सुभद्रा नामक पत्नी थी जो सुकुमाल थी किन्तु वंध्या होने के कारण उसने एक भी संतान को जन्म नहीं दिया। वह केवल जानु और कूपर की माता थी अर्थात् उसके स्तनों को केवल घुटने और कोहनियाँ ही स्पर्श करती थी, • संतान नहीं अथवा उसकी गोदी और हाथ दूसरों के पुत्रों के लाड़ प्यार में ही समर्थ थे न कि अपने पुत्रों के लाड़ प्यार में क्योंकि उसकी अपनी कोई संतान नहीं थी। सुभद्रा की चिंता तए णं तीसे सुभद्दाए सत्थवाहीए अण्णया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकाले कुडुम्बजागरियं जागरमाणीए इमेयारूवे जाव संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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