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पुष्पिका सूत्र
आज्ञा
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प्रस्थान (साधना मार्ग) में, पत्थियं - प्रस्थित, अभिरक्खउ - रक्षा करो, अणुजाणउ दीजिये, दब्भे - दर्भ, कुसे - कुश, पत्तामोडं - पत्रामोट तोड़े हुए पत्ते, समिहाकट्ठाणि - संमिधा काष्ठ - हवन के लिये छोटी छोटी लकड़ियां, उवलेवणसंमज्जणं - उपलेपन - संमार्जन, आयंते आचमन करके, चोक्खे - स्वच्छ, परमसुइभूए परम शूचिभूत, देवपिउकयकज्जे - देव और पितरो संबंधी कृत्य- कार्य, दब्भकलसहत्थगए - दर्भ (डाभ) और कलश हाथ में लेकर, वेदिं - वेदी को, रएइ - रचना करता है, सरयं शरक-निर्मंथन काष्ठ, अरणिं - अरणि को, संधुक्खेड़ - सुलगाता है- धौंकता है, पक्खिवइ डालता है, उज्जालेइ - प्रज्वलित करता है, सत्तगाई - सात अंगों (वस्तुओं) को, समादहे - स्थापन करता है, सकत्थ - सकत्थ-तापसों का उपकरण विशेष, सिज्जभंड - शय्या भाण्ड, कमंडलुं - कमण्डल, दण्डदारुं - लकड़ी का डण्डा, महुणा - मधु से, घण - घी से, तंदुलेहि - तंदुल चांवलों से, हवइ - हवन करता है, चरुं चरु को, बलिवइस्सं देवं - बलि वैश्व देव - नित्य यज्ञ कर्म ।
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भावार्थ - तत्पश्चात् वह सोमिल ब्राह्मण ऋषि पहले षष्ठ- क्षपण (बेले) पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरा, उतर कर वल्कलं वस्त्र पहने और जहां अपनी कुटी (कुटिया ) थी वहां आया, आकर वहां से किढिण संकायिक- कावड़ ली और पूर्व दिशा को जल से प्रोक्षण करता है और कहता है - “हे पूर्व दिशा के अधिपति सोम महाराज ! साधना मार्ग में प्रस्थित मुझ सोमिल ब्राह्मण की रक्षा करें तथा यहां जो भी कंद, मूल, छाल, पत्र, पुष्प, फूल, बीज और • हरित वनस्पति है उन्हें लेने की आज्ञा दें । " ऐसा कह कर सोमिल ब्राह्मण पूर्व दिशा की ओर जाता है और वहां जो भी कंद, मूल यावत् हरित वनस्पति थी उनको ग्रहण करता है और कावड़ में भरता है। उसके बाद दर्भ, कुश, तोड़े हुए पत्ते और समिधा काष्ठ को लेकर जहां अपनी कुटी थी वहां आया और अपनी कावड़ को रखा। कावड़ रख कर वेदिका का स्थान निश्चित किया और उसे प्रमार्जन कर लीप कर शुद्ध किया । तदनन्तर दर्भ और कलश को हाथ में लेकर गंगा के तट पर आया और गंगा नदी में प्रवेश किया, जल से देह शुद्ध की, जल क्रीड़ा की, अपनी देह पर पानी सिंचा और आचमन आदि करके स्वच्छ और परम शूचिभूत होकर देव और पितरों का कृत्य करके दर्भ और कलश हाथ में लेकर गंगा महानदी से बाहर निकला और अपनी कुटी में आया। कुटी में आकर दर्भ, कुश और बालू से वेदी की रचना की, सर ( मंथन काष्ठ) और अरणि तैयार की। मंथन काष्ठ और अरणि को घिसा, अग्नि सुलगाई । अग्नि प्रज्वलित की, उसमें समिधा डालकर अधिक प्रज्वलित की और अग्नि की दाहिनी ओर ये सात वस्तुएं स्थापित की ( रखीं ) - १. सकत्थ ( तापस उपकरण विशेष ) २. वल्कल ३. स्थान
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