Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 16
________________ अगला सूत्र है न पृथिवी न जलं नाग्निर्न, वायुॉर्न वा भवान् । एषां साक्षिणमात्माम, चिद्रूपं विद्धि मुक्तये ॥ अष्टावक्र कहते हैं-तू न पृथ्वी है, न जल है, न अग्नि है, न आकाश है और न वायु है। मुक्ति के लिए अपने आपको इन सबका साक्षी-रूप चैतन्य जान। ध्यान और योग में गहरे उतरने का यह एक बेहतरीन सूत्र है। किसी भी व्यक्ति को यदि ध्यान करना है, तो वह केवल इतना-सा जाने कि मैं न पृथ्वी हूं, न जल हूं, न आकाश हूं, न अग्नि हूं और न ही पवन। मैं इन पंचमहाभूतों से भिन्न केवल साक्षी चैतन्य आत्मा हूं। जब तुम पृथ्वी नहीं हो, तो पृथ्वी पर पैदा होने वाला अनाज तुम्हारा कैसे हो गया; पृथ्वी की सारी संपदाएं तुम्हारी कैसे हो सकती हैं। परिवार-समाज में व्याप्त संबंध तुम्हारे कैसे हो सकते हैं? पिता को अहंकार है कि यह मेरा बेटा है। वह यह मानने को तैयार नहीं है कि वह तो केवल माध्यम भर है। भला आत्मा को कोई जन्म दे पाया है ? तुम देह को जन्म दे सकते हो, आत्मा को नहीं। मेरा कहकर तुम केवल ममत्व-बुद्धि को आरोपित कर रहे हो। आदमी सांसारिक, भौतिक जगत में उलझा रहता है। उसकी स्थिति अपने घर में बने मकड़जाल में उलझी हुई मकड़ी-सी होती है। वह मकड़जाल तुम्हारे लिए पहला शास्त्र, पहला आगम है, वशर्ते तुम उसे पढ़ पाओ। न पृथ्वी है, न वायु है, न जल है, तो तू क्या है? क्या देह तुम्हारी है? तुम्हारी है, तो इसे श्मशान में फूंकने क्यों जाते हो, जिस पर तुम्हें इतना नाज है? एक छोटी-सी हड्डी टूट जाए, तो उसे जुड़ने में छः महीने लग जाते हैं, मगर प्रकृति को देखो कि जब पंचमहाभूत आपस में मिलते हैं, तो मात्र नौ महीनों में हड्डियों का एक ऐसा ढांचा खड़ा हो जाता है कि कौतूहल पैदा करता है। वह ढांचा, वह काया बनती है, फिर बिखर जाती है। ठीक ऐसे ही कि जैसे माटी का दीया पहले माटी था, सिमटा, दीया हुआ, ज्योत जली और फिर माटी माटी में समा गई। ज्योति तो तमस् की भी साक्षी ही रहती है। अष्टावक्र कहते हैं कि अपने आपको साक्षी चैतन्य रूप ही जान! अपने साक्षित्व को, अपने आत्मभाव को, अपने दृष्टाभाव को हम प्रकट करते चले जाएं और देखते चले जाएं कि देह मुझसे भिन्न है। अपने आपको सबसे अलग देखने का नाम ही सजगता है, साक्षित्व है। पहला चरण है-शरीर । शरीर के भीतर विचार, विचारों की गहराई में भाव और भावों की गहराई में हमारी अपनी आत्मा, अपनी चेतना रहती है। चेतना पर सूक्ष्म एवं स्थूल परतें चढ़ी हुई हैं। भावों, अनुभावों, विचारों, विकल्पों, वृत्तियों की परतों पर अंतिम 15 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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