Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 64
________________ संसार में खिले समाधि के फूल अष्टावक्र-गीता उन लोगों के लिए अमृत वरदान है, जिनके अंतःकरण में आत्मज्ञान की तीव्र अभिलाषा है। यह गीता उनके लिए पवित्र सौगात है, जिनके अंतःकरण में मोक्ष की मुमुक्षा है। यह गीता उनके लिए प्रकाश-स्तंभ है, जो अपने आंतरिक प्रकाश को उपलब्ध होना चाहते हैं। इस गीता का परम लक्ष्य यही है कि हर व्यक्ति आंतरिक प्रकाश, आंतरिक स्वास्थ्य और आंतरिक आकाश को उपलब्ध हो। अंतर्जगत का अपना स्वाद है; अपना प्रकाश और सुवास है। मनुष्य की अंतर्यात्रा में कोई तत्त्व बाधक बनता है, तो वह मनुष्य का अपना ही मन है। मनुष्य का मन एक सराय की तरह है, जिसमें न जाने कितने वांछित और अवांछित यात्री आते हैं, जाते हैं। इसमें विचारों और विकल्पों के यात्री, कल्पनाओं तथा धारणाओं के अतिथि पल-प्रतिपल आते हैं, चले जाते हैं। अगर व्यक्ति को स्वयं का गृहस्वामी बनना है, तो निश्चित तौर पर इन आने-जाने वाले यात्रियों पर अंकुश लगाना होगा। मनुष्य के मन में बड़ी अराजकता है, बड़ा पागलपन है; मनुष्य का मन बड़ा चंचल और गंदला है। जिनमें आत्मज्ञान की अभीप्सा और मोक्ष की मुमुक्षा है, वे व्यक्ति तब तक आत्मज्ञान की रोशनी को उपलबध नहीं कर पाएंगे, जब तक उसके मन की बाधाएं, दुविधाएं नीचे नहीं गिर जातीं। मनुष्य का मन ही उसके लिए संसार का और निर्वाण का साधन बनता है। मनुष्य के मन में ही बाह्य जगत की तरंगें हैं, उसी के मन में अंतःकरण के निर्वाण का सोपान है। उसी में पाप और पुण्य, बंधन और मोक्ष हैं। हम लोग हमेशा से एक सूत्र सुनते आए हैं-मनएव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो। मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। व्यक्ति के लिए उचित यह होगा कि वह ईमानदारी के साथ अपने मन का, अपने चित्त का निरीक्षण करे। जैसे-जैसे निरीक्षण गहराता जाएगा, त्यों-त्यों मन स्वतः ही विलीन होता चला जाएगा। मन से मुक्त होना ही है, तो पहली कीमिया (सार तत्व) यह है कि मन को जितना साधना चाहेंगे, मन उतना ही चंचल होगा। मन को जितना केंद्रित करोगे, वह उतना ही विकेन्द्रित होगा, उतना ही वर्तुलाकार घूमेगा। मन को साधना 63 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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