Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

View full book text
Previous | Next

Page 104
________________ आत्मज्ञानी जनक के मुंह से उच्चारित हुआ यह सूत्र शायद भारतीय दर्शन में मिलने वाले समस्त आत्म-अनुभव मूलक सूत्रों और सिद्धांतों में अनूठा और निराला है। ‘वह व्यक्ति संसार से मुक्त है, जीवन-मुक्ति को जी रहा है, जिसका चित्त शून्य हो चुका है। जो व्यक्ति केवल प्रमोदवश ही विषयों की भावना रख लेता है, वह सोते हुए भी जागने के समान है।' वस्तुतः शून्य ही तो अध्यात्म की आत्मा है, प्राण है, कुंजी है, अध्यात्म की यात्रा की शुरुआत ही शून्य से होती है, उसका मध्यम पड़ाव भी शून्य है और उपसंहार भी शून्य पर ही होता है। शून्य यानी तुम्हारे भीतर रहने वाली अनंत ऊर्जा, अनंत आकाश, प्राण ऊर्जा, चैतन्य ऊर्जा। शून्य यानी बदली छंट गई, केवल आकाश रह गया; शून्य यानी वह सुवास, जिसका कोई आकार नहीं। जिन क्षणों में व्यक्ति अपने भीतर आकाश का अनुभव कर लेता है, निराकार का अनुभव कर लेता है, तभी आकार का तादात्म्य गिर जाता है और निराकार का आनंद नाच उठता है। साक्षित्व ही व्यक्ति को परम शून्य की ओर ले जाने का मार्ग है। साक्षित्व का सूरज उग आए, तो अपने भीतर स्वतः ही शून्य प्रकट हो जाता है। ये वेद, आगम, उपनिषद्-सभी परम शून्य पर ही तो टिके हैं; यह सकल ब्रह्मांड भी परम शून्य पर ही टिका है । तुम भी जिस पर अवलंबित हो, जिससे संचालित और सक्रिय होते हो, वह परम शून्य ही है। तुम्हारे भीतर से शुन्य निकल जाए, तो तुम भी 'शून्य' हो जाओगे, मृत हो जाओगे। जापान में ध्यान की एक मौलिक परंपरा हुई है, जो कि 'जेन' के नाम से मशहूर हुई। जेन का सारा शिक्षण और अध्यापन मात्र यही है कि व्यक्ति परम शून्य को उपलब्ध हो। एक ज़ेन संत हुए, जिनका नाम था-होताई। उनके बारे में कहा जाता था कि वे एक हंसते हुए बुद्ध थे। आत्मज्ञान, परम शून्य को उपलब्ध होताई जब फुरसत के क्षण होते, तो गलियों, वाजारों से गुजरते । छोटे-छोटे बच्चे मिल जाते, उनमें टॉफियां, बिस्कुट बांटते चलते। उनका झोला सदैव इन्हीं चीजों से भरा हुआ रहता। बच्चे उन्हें देखते, पीछे पड़ जाते। उन्होंने अपने जीवन में शायद ही कोई उपदेश दिया हो, कोई वक्तव्य दिया हो, संक्षिप्त प्रवचन भी दिया हो। केवल मौन रहते, मुस्करा भर देते, दो-चार शब्द कह लेते। एक बार संत होताई किसी रास्ते से गुजर रहे थे, तो पीछे से एक युवक ने होताई को आवाज लगाई। संत रुके। युवक ने कहा-संतप्रवर, मैं केवल इतना ही जानना चाहता हूं कि जिस पंथ के आप अनुयायी हैं, वह जेन आखिर है क्या ? संत ने आव देखा न ताव, अपने कंधे पर जो थैला लटक रहा था, उस थैले को कंधे से नीचे उतारा और उलटा लटका दिया। थैला पूरा खाली हो गया। युवक कुछ समझ न पाया। संत होताई बच्चों को टॉफियां बांटते-बांटते आगे बढ़ गए। 103 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130