________________
भी हैं; वैर और वैमनस्य की छिछलेदारियां भी हैं। एक ही व्यक्ति में प्रेम पलता है और उसी में आक्रोश छिपा रहता है। अच्छाई और बुराई, फूल और कांटे-दोनों की जड़ें आदमी के भीतर समाई हुई हैं, इसलिए फूलों से प्यार कर लेने भर से काम न चलेगा, तुम्हें कांटों से भी बचना होगा।
हमारे भीतर रहने वाला क्रोध, आक्रोश, वैर-ये सभी हमारे अपने हैं। हर मनुष्य के भीतर कई दमन पलते हैं; कई उच्छृखलताएं पलती हैं; कई बीमारियां पलती हैं। मनुष्य बार-बार इन बीमारियों को सिंचित कर रहा है। किसी आदमी को जोरों से बुखार हो और वह ठंडा पेय पी ले, तो उसके बुखार में बढ़ोतरी ही होती है। ऐसे ही कोई क्रोधी आदमी अपने क्रोध को बार-बार दमन करके क्रोध को और पुष्ट और मजबूत करता है। मूर्छा में रहने वाला आदमी मूर्छित वातावरण में रहकर अपनी मूर्छा को और बढ़ाता है। ये बुराइयां तभी छूटेगी, जब आदमी अंतस्-चेतना की गहराई में उतरेगा; चेतन और अवचेतन मन की गर्त में छिपी धूल को हटा पाएगा।
अगर आदमी आत्मबोधि के साथ, जागरूकता के साथ क्रोध करे, तो उस व्यक्ति के द्वारा क्रोध हो नहीं पाएगा। अज्ञान और बेहोशी में अगर क्रोध भी करोगे, तो बार-बार पुनरावृत्ति होती रहेगी। बेहोशी के साथ अगर भोग के द्वार पर पहुंचोगे, तो अगले दिन फिर भोग के मार्ग से गुजरने की तमन्ना जगेगी और जागरूकता के साथ अपनी आत्मा को अपने हाथ में रखकर भोग के द्वारों से गुजरोगे, तो भी तुम योग के मार्ग की ओर प्रवृत्त हो जाओगे।
अभी-अभी जब मैं यहां पहुंचा, तो किसी आत्मीय व्यक्ति के घर जाना हुआ। उस व्यक्ति का मात्र डेढ़-दो वर्ष का बच्चा गर्म पानी से जल गया था। उसका अधिकांश शरीर जल चुका था, बावजूद इसके वह अपने बिस्तर पर आंखें खोलकर मौन पूर्वक लेटा था। जैसे ही मैं वहां पहुंचा, उसने अपना हाथ हिलाया। इतनी वेदना में भी उसने मेरी मुस्कान का जवाब दिया। वह इतनी पीड़ा में भी प्रसन्न है, क्योंकि उसका अपनी देह के प्रति मोह नहीं जगा, कोई मूर्छा न जगी, कोई तमस् न जगा। जिस व्यक्ति की अंतस्-चेतना में पूरी जानकारी के साथ देह के प्रति रहने वाली मूर्छा का तादात्म्य टूट जाता है, वह देह में रहता है, फिर भी उससे निर्लिप्त खड़ा रहता है। तभी तो जनक कहते हैं
प्रकृत्या शून्यचित्तो यः प्रमोदाद् भावभावनः। निद्रितो बोधित इव, क्षीण संसरणो हि सः ॥
अर्थात जो स्वभाव से ही शून्य-चित्त है, पर प्रमोद से विषयों की भावना करता है और सोते हुए भी जागने के समान है, वह पुरुष संसार से मुक्त है।
102
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org