Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 112
________________ सत्य स्वयं में समाहित आज के सूत्र बड़े अनूठे और क्रांतिकारी हैं। ये सूत्र ऐसे हैं कि जैसे कोई बड़ी आत्मीयता से ठेठ भीतर की गहराइयों को छू लेना चाहता है । आज के ये सूत्र, सूत्र कम हैं, हिदायतें ज्यादा हैं। जैसे कोई आदमी सागर के किनारे खड़ा हो और लंगर खोलकर नौका पर सवार होने वाला हो कि तभी कोई वृद्ध अनुभवी मांझ आ जाए और सागर में बरती जाने वाली सावधानियों से सावधान कर दे; जैसे कोई आदमी किसी हाथी पर सवार होने वाला हो और अनुभवी महावत आ जाए और हाथी पर सवार होने वाले को सचेत कर दे । ऐसी ही कुछ सावधानियों को बड़ी सावधानी से सुनना होगा, क्योंकि ये सावधानियां, ये हिदायतें भावी जीवन की, साधनात्मक जीवन की खतरों की सांकेतिक घंटियां हैं। सूत्र है आचक्ष्व श्रृणु वा तात, नानाशास्त्राण्यनेकशः । तथापि न तव स्वास्थ्यं, सर्व विस्मरणादृते ॥ अष्टावक्र कहते हैं- अनेक शास्त्रों को अनके प्रकार से तू कह या सुन, लेकिन सबके विस्मरण के बिना तुझे स्वास्थ्य और शांति नहीं मिलेगी। चाहे अनेक प्रकार के शास्त्रों को सुना जाए या पढ़ा जाए, लेकिन साधक की आत्मा को तब तक स्वास्थ्य और शांति नहीं मिल सकती, जब तक कि वह सबको विस्मरित नहीं कर देता। ज्ञान का विस्मरण ही साधक की मुक्ति है और ज्ञान का संग्रह ही साधक के मन में चलने वाली ऊहापोह और उठापटक है । शास्त्र और किताबें तो सत्य के लिए केवल मार्गदर्शक बनते हैं । अष्टावक्र गीता का महत्त्व एक नक्शे जितना ही है। नक्शे का कार्य अमुक सीमा - रेखा और मार्ग का ज्ञान कराना है, मार्गों को जानना एक और बात है और उन पर चलना जुदा पहलू है । यह मनुष्य की बहुत बड़ी विडंबना है कि वह शास्त्रों को सुनता है, उनकी पूजा करता है, उनको अपने शीश पर रखता है, लेकिन उनके मर्म से अछूता रहता है । शास्त्रों के शब्द तभी सार्थक हो पाते हैं, जब उनका अर्थ हमारे जीवन से परिभाषित Jain Education International 111 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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