Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 122
________________ जीवन की मदिरा को पीमदमस्त हुआ यह तन-मन मेरा, हुआ सवेरा। सांसों की सरगम बज करके प्राणों का निवृत्त हुआ अंधेरा। नहीं चिंता भूत-भविष्यत् की वर्तमान में डाला डेरा। जीवन की मदिरा को पी मदमस्त हुआ यह तन-मन मेरा, हुआ सवेरा। आत्मशोध की ज्वाला ने गहराई से मुझको घेरा। आत्म-समर्पण घटित हुआ नष्ट हो गया तेरा-मेरा। जीवन की मदिरा को पी मदमस्त हुआ तन-मन मेरा, हुआ सवेरा। नहीं-नहीं, इच्छा कुछ भी दूर हुआ अज्ञान घनेरा। प्रतिपल जीवन जीता जाऊं यह जग है बस रैन-बसेरा। जीवन की मदिरा को पी मदमस्त हुआ यह तन-मन मेरा; हुआ सवेरा। तन-मन-जीवन तृप्त हो उठा है। जिसे भूत-भविष्य की कोई चिंता नहीं, जिसके मन में कोई इच्छा नहीं, स्वाभाविक है कि वह तृप्त होगा, आह्लादित होगा, मदमस्त होगा। इच्छा और चिंता के दलदल से जो मुक्त है, वही मुक्त है। वही तृप्त है। ऐसा नहीं कि ज्ञान और योग का फल उसे प्राप्त होगा, वरन् प्राप्त ही है। जो सदा तृप्त है, वह सदा मुक्त है। ज्ञान और योगाभ्यास का फल प्राप्त करने के लिए अष्टावक्र दूसरी जो अनिवार्यता बताते हैं, वह है स्वच्छ और शुद्ध इंद्रिय। स्वेच्छेद्रिय! यह सहज अनिवार्य है कि व्यक्ति अपनी इंद्रियों से, अपने मन से सौम्य हो, स्वच्छ हो, निर्मल हो। देखना 121 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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