Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

View full book text
Previous | Next

Page 121
________________ पहला चरण है-जो तृप्त है। दुनिया में तृप्ति दिखाई ही कहां देती है। यहां केवल भिखारी ही अतृप्त नहीं है, जो झोली लेकर मांगने को निकल पड़ता है, वरन् सिकंदर भी अतृप्त है। जो एक देश को जीतने के बाद, एक देश को लूटने के बाद किसी दूसरे देश की ओर चल पड़ता है। जिसके पास जितना है, वह उतना ही अतृप्त है। जिसके पास जितना कम है, उसकी अतृप्ति उतनी ही सीमित है। पाने से तो अतृप्ति के दायरे और बढ़ जाते हैं। मैं पूलूंगा, आखिर तुम कितना पाओगे! कितना धन बटोरोगे! कितना यश अर्जित करोगे! कितने पदों पर अपनी टांग रखना चाहोगे! यह सब मन की नासमझी है। क्या तुमने अपने मन की नासमझी को समझने की कभी कोशिश की है? जो है, वह तुम्हारे जीवन की व्यवस्था के लिए पर्याप्त है, उसी में तृप्त रहो न। कहते हैं कि सिकंदर का किसी संत से आमना-सामना हुआ। सिकंदर ठहरा विश्व-विजेता, आक्रामक तेवर का आदमी। सिकंदर ने संत से कहा कि क्या तुम जानते हो कि मैं कौन हूं? विश्व-विजेता महान् सिकंदर, सारे संसार का साम्राज्य मेरे अधीन। संत मुस्कराया। उसने कहा-जैसे आज तू छाती ठोक कर बोल रहा है सिकंदर! मैं भी ऐसा ही गुमान किया करता था। मैं भी तुम्हारे जैसा ही कभी सम्राट रहा था। किसी पर आक्रमण करने जा रहा था, लेकिन रास्ते में सेना पीछे छूट गई और मैं अकेला ही बहुत आगे बढ़ चला। मैं रेगिस्तान में भटक गया! गरमी की धूप में प्यास के मारे तड़प रहा था। मेरे प्राण सूखे चले जा रहे थे। प्यास के मारे अपने घोड़े को अपने ही सामने मैंने मरते हुए देखा। मेरा हृदय रो पड़ा कि इतने बड़े साम्राज्य का अधिपति दो बूंट पानी के लिए यों लालायित! ____ मैंने खुदा से मिन्नत की, भगवान से दुआ मांगी और अपने लिए एक लोटा जल चाहा। तभी न जाने कहां से एक सज्जन पहुंचा और उसने मेरी ओर एक लोटा पानी बढ़ाया। मैं अपना हाथ आगे बढ़ाऊं कि तभी उस सज्जन ने मुझसे पूछा-इस पानी की कीमत क्या दोगे? मैंने गर्व से कहा-मेरे शरीर के भार जितना सोना। उसने कहा-यह तो बहुत कम है। मैं चौंका। एक लोटे पानी के बदले इतना सोना, फिर भी वह कहने लगा कम है! मैंने कहा-आधा साम्राज्य, मगर उसने कहा-इतने में भी मैं तुम्हें यह पानी देने को तैयार नहीं हूं, इस पानी के आगे आधा साम्राज्य भी आधी कीमत ही है। मरता क्या न करता! मैं बगैर पानी के तिल-तिल जल रहा था। मैंने कहा-पूरा साम्राज्य और उसने मुझे लोटा थमा दिया। मेरे प्राण बच गए, मगर मेरी चेतना की दिशा बदल गई। सिकंदर, उन तड़पते क्षणों में मैंने जाना कि ओह! साम्राज्य की कीमत केवल एक लोटा पानी! और तब मेरे जीवन में संन्यास का सूरज उगा, तृप्ति की बयार बही, अतृप्ति और प्राप्ति के जंजाल से मुक्त हुआ। 120 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130