Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

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Page 119
________________ मुक्त चेतस की अहोदशा ज्ञा ही वह धुरी है, जिस पर अष्टावक्र गीता का सारा विस्तार टिका हुआ है ! जीवन में ज्ञान का उदय, बोध का उदय अंतरमन के तमस में प्रकाश की क्रांति है, कैवल्य का सूत्रपात है, मोक्ष की मुमुक्षा का जागरण हैं । अष्टावक्र एक ओर ज्ञान के उदय को जीवन का अमृत वरदान मानते हैं, वहीं दूसरी ओर ज्ञान के विस्मरण को मुक्ति का राजद्वार । ज्ञान के विस्मरण से ही आत्मज्ञान का उदय होता है । किताबी ज्ञान का विस्मरण हो, मत-मतान्तरों का विस्मरण हो, भ्रम-संशयों का विस्मरण हो, नय और आग्रहों का विस्मरण हो । बाहर के ज्ञान से हमारी चेतना दबी जा रही है। किताबों को पढ़ पढ़ कर हमने अपने आपको भुला दिया है। ज्ञान वही है, जो हमें अपनी पहचान करवाए। जिससे हम अपने आपको जान सकें, वह ज्ञान है। जिसके कारण हम अपने आपको भूल बैठे हैं, उसे तुम ज्ञान की संज्ञा कैसे दे सकते हो ! वह तो एक प्रकार से अज्ञान ही है । स्वयं के स्वभाव-मूलक ज्ञान को जो ढांक दे, अंततः वह भार ही है । जो पत्थर निर्झर को फूटने से रोक दे, जो माटी कुएं को प्रकट होने से रोके रखे, वह पत्थर, वह माटी अंततः हमें हटानी होगी, उससे मुक्त होना होगा । व्यक्ति ने जाना है, पहचाना है, किताबों को, सिद्धांतों को, किंतु उससे तो हम अपरिचित ही रहे, जो हमारा अपना सत्व है, अस्तित्व है । किताबी ज्ञान, शास्त्रीय ज्ञान हमारे लिए मार्गदर्शक अवश्य है, मगर हम मार्ग पर चलने की बजाय मार्ग के केवल नक्शों को ही बटोर कर रख बैठे, केवल मील के पत्थरों को ही गिन बैठे, तो इससे मंजिल प्राप्त नहीं हो सकती। कहीं ऐसा न हो कि जीवन की सांध्य - वेला में जब मौत हमारी डगर पर आए, तो हम प्रायश्चित से भरे हों कि मैं मूढ़, जो अनजाना रहा अपने आप से । आइंस्टीन जब मरणासन्न था, तो उसके हितैषियों ने उससे पूछा-मृत्यु के समय तुम्हारे मन में क्या हो रहा है? आइंस्टीन ने कहा, प्रायश्चित और अवसाद | मित्रों ने पूछा- क्यों? आइंस्टीन ने कहा- प्रकाश-वर्ष की खोज कर ली, तो क्या हुआ, स्वयं Jain Education International 118 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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