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विषय-विरसता ही मोक्ष
झ की वेला में मैं अपने अंतर-मौन में आत्मलीन आसीन था। तभी
। 'जगतनारायण' उपस्थित हुए और उन्होंने बांसुरी-वादन प्रारंभ किया। 'जगतनारायण' की अंगुलियां बांस पर बने छिद्रों पर नृत्य करने लगीं; कंठ से निःसृत होती प्राणवायू बांसुरी पर स्वर-लहरियां छेड़ने लगी। बड़ा अनूठा जादू है उस बांसुरी में। बांसुरी के सुर सुन रहा था, तो लगा कि ऐसा ही एक संगीत, एक ब्रह्मनाद भीतर उमड़ रहा है। बाहर और भीतर का संगीत एकरस, एकलय, एकतान हो गए। अंगुलियां सधनी चाहिए। बांस की पोंगरी संगीत का असीम सामर्थ्य अपने में समेटे है।
जीवन भी एक बांसुरी है। जिस शख्स को अंगुलियां साधनी न आईं, उसके लिए बांसुरी की अधिक अर्थवत्ता नहीं है, लेकिन जिसे साधने की कला आ गई, उसके लिए बांस, बांस नहीं; जीवन, जीवन नहीं। उसके लिए जीवन भी बंशीवाले का वरदान है। जैसे बांसुरी के भीतर एक शून्य, एक रिक्तता समाई है, वैसी ही शून्यता हम सबके भीतर मौजूद है। जीवन अपने आप में संगीत से भरा हुआ है। यह तो मनुष्य ही है, जो बधिर बना हुआ है। मनुष्य को अपना जीवन-संगीत सुनाई नहीं देता। जीवन स्वयं अनुपम सौंदर्य से आच्छादित है, पर क्या करें, स्वयं आदमी में ही अंधापन है। जीवन परम आनंद और परम प्रसार से पूरित है, पर क्या करें, स्वयं आदमी ही संवेदनहीन बना हुआ है। जिसके पास संवेदना है, उसके लिए जीवन करुणा की प्याली है; उसके लिए जीवन आंगन में उतरा आकाश है।
हम या तो जीवन का शोषण कर लेते हैं या फिर इसको इस तरह तपाने में लग जाते हैं, जैसे जमे हुए घी को पिघलाने के लिए तपाया जाता है। मगर ध्यान रहे तपाने का अर्थ शरीर को तपाना-सुखाना नहीं है, तपाने का अर्थ है मन को, चित्त को इस प्रकार तपाना कि वासनाओं का सारा जाल राख हो जाए। चित्त शांत, शून्य, रिक्त हो जाए। महर्षि अष्टावक्र तो उस व्यक्ति को आत्मज्ञान, तत्त्वबोध का
अधिकारी समझते हैं, जिस व्यक्ति की इच्छाएं भीतर से गलित हो चुकी हैं; जिसका चित्त शून्य हो चुका है; जिसकी बुद्धि पवित्र और सौम्य हो चुकी है।
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