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अष्टावक्र-गीता का एकमात्र ध्येय इतना-सा ही है कि व्यक्ति येन-केन प्रकारेण अपने भीतर चल रहे अंतर्द्वद्व से, यातायात और कोलाहल से मुक्त हो जाए।
मनुष्य का मन अगर शरीर की ओर जाता है, तो जीवन में भोग प्रकट होता है; मनुष्य का मन जब चेतना की तरफ बढ़ता है, तो जीवन में योग का आविष्कार होता है। मनुष्य का मन ही भोग का द्वार खोलता है और वही मन योग का सूर्योदय भी करता है। जनक तो योग और भोग के बीच की वह कड़ी, वह सेतु बन चुके हैं, जिसने पहले मन को समझा, उसे बदला और फिर अपने आपको मन से मुक्त कर लिया। जिसने अपने आपको जान लिया है कि मैं देह और मन से अलग हूं, वह व्यक्ति देह और मन के द्वारा प्रवृत्ति करते हुए भी प्रवृत्ति न करने जैसा रहता है।
जनक ने जान लिया कि मैं शरीर से भिन्न हूं; मैं शरीर का केवल साक्षी भर हूं; मैं अपने मन से, वाणी से, विचारों से भिन्न हूं। अपने आपको पृथक जान लेने का नाम ही महावीर की भाषा में भेद-विज्ञान है।
अष्टावक्र को जो देना था, वह भेद-विज्ञान के रूप में दे दिया और जनक ने उन ज्ञान की बातों को, उन उपदेशों को स्वीकार कर लिया। अब वे उनके पास बैठकर पचा रहे हैं, रस बना रहे हैं। एक ऐसा रस बन रहा है, जो जनक को भी अभिभूत कर रहा है और अष्टावक्र को भी आनंदित कर रहा है; एक ऐसा रस कि जिसके आगे जीवन की सारी नीरसताएं मिट जाती हैं। एक ऐसा दीया जल चुका है, जिसकी रोशनी से सारा अंधकार तिरोहित हो जाता है। एक ऐसी
शांति साकार हो आई है कि जैसे हवा के थमने से दूर-दूर फैला जल थम-सा जाता · है, निस्तरंग हो जाता है सरोवर।
जनक भी कुछ सूत्र देते हैं और अष्टावक्र भी कुछ सूत्र देते हैं। अगर अपने जीवन को इन सूत्रों के साथ जोड़ लो, तो ये हमें वैसे ही तृप्त कर देंगे, जैसी तृप्ति जनक को मिली थी; जैसे मील का पत्थर पाकर भटका हुआ राहगीर रास्ता पा लेता है और जैसे पंख पाकर पंछी आकाश में उड़ने को आतुर हो जाता है. ऐसे ही ये सूत्र हमारे सहयोगी होंगे। पहला सूत्र है
अकिंचन भवं स्वास्थ्य, कौपीनत्वेऽपि दुर्लभम् ।
त्यागादाने विहायास्मादहमासे यथासुखम् ॥ जनक कहते हैं- नहीं है कुछ भी-ऐसे भाव से पैदा हुआ जो स्वास्थ्य है, चित्त की स्थिरता है, वह तो कोपीन को धारण करने पर भी दुर्लभ है, इसीलिए त्याग और ग्रहण को छोड़कर मैं सुखपूर्वक स्थित हूं।
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